दुनिया भर के नेतृत्वकर्ता 30वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप30) के लिए ब्राजील में जुटे हैं. 30 साल से अधिक समय पहले, 1992 के रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन में देशों ने जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और मरुस्थलीकरण पर तीन ऐतिहासिक समझौते अपनाए थे, जो एक सतत भविष्य के लिए दुनिया का मार्गदर्शन करने वाले स्तंभ है. इसलिए, कॉप30 यह सवाल पूछने का सही समय है कि हमने क्या लक्ष्य रखे थे? और इससे भी महत्वपूर्ण यह जानना है कि हमने उनमें से कितने लक्ष्य पूरे किए हैं?
इसके जवाब चौंकाने वाले नहीं हैं. एक तरफ, जलवायु कार्रवाई वास्तव में एक लंबा सफर तय कर चुकी है. हालिया शोध बताते हैं कि इतिहास में पहली बार अक्षय ऊर्जा ने दुनिया में बिजली के प्रमुख स्रोत के रूप में कोयले को पीछे छोड़ दिया है. हम देख रहे हैं कि ग्लोबल साउथ इस बदलाव का नेतृत्व कर रहा है.
उदाहरण के लिए, भारत ने अपने 50 प्रतिशत गैर-जीवाश्म ऊर्जा की स्थापित क्षमता का लक्ष्य समय से पांच साल पहले हासिल कर लिया है. ब्राजील की सौर ऊर्जा 2020-25 के दौरान छह गुना बढ़ चुकी है, और 2024 में लगभग 625 बिलियन अमरीकी डॉलर के साथ चीन का स्वच्छ ऊर्जा निवेश 2015 के बाद से लगभग दोगुना हो चुका है.

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विकसित देशों में लड़खड़ाते प्रयास
वहीं, दूसरी तरफ दो सख्त सच्चाइयां भी मौजूद हैं. पहला, पूरे ग्लोबल नॉर्थ में प्रयास लड़खड़ा रहे हैं: अमेरिका पेरिस समझौते से पीछे हट गया है, भले ही यूरोपीय संघ ने हाल में अपना अपडेटेड राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) पेश किया हो, लेकिन सभी हिस्सों में जलवायु महत्वाकांक्षा और उस पर सहमति को लेकर मतभेद बहुत स्पष्टता से दिखते हैं. 2024 में वैश्विक विकास सहायता में 9 प्रतिशत गिरावट आई है और जलवायु वित्त भी खतरे में है. इस बीच जलवायु परिवर्तन की स्थितियां खराब होती जा रही है. एशिया-प्रशांत क्षेत्र इसके केंद्र में है.
एशियाई विकास बैंक (एडीबी) के मॉडलिंग अनुमानों के अनुसार, इस क्षेत्र के लिए 2070 तक संभावित आर्थिक नुकसान सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 17 प्रतिशत के बराबर हो सकता है. एक तरफ दुनिया सदी के अंत तक तापमान में 2.3-2.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के रास्ते पर है, दूसरी तरफ ग्लोबल नॉर्थ साम्यता (इक्विटी), ऐतिहासिक जिम्मेदारी और समझौतों के उत्तरदायित्व से भाग रहा है.
एक बात साफ है कि विभिन्न देशों के प्रयास उत्सर्जन को कम करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. भले ही राष्ट्रीय नीतियां इन्हें आधार देती हैं, लेकिन सरकारों, व्यवसायों और नागरिक समाज के बीच एक व्यापक साझेदारी जरूरी बनती जा रही है.

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सरकारें कर रही हैं प्रयास
काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के एक नए शोध से पता चलता है कि सरकारों की अगुवाई वाली पहलें बढ़ी हैं, पिछले दशक में ऐसी 200 से ज्यादा पहलें शुरू हुई हैं. कॉप25 के बाद से वित्तीय सहायता से जुड़ी पहलें भी बढ़ रही हैं, और ऊर्जा व औद्योगिक क्षेत्रों की साझेदारियां सबसे मजबूत हैं.
भारत के उल्लेखनीय उदाहरणों में इंटरनेशनल सोलर अलायंस (आईएसए) और कोएलिएशन फॉर डिजास्टर रेजीलियंस इंफ्रास्ट्रक्चर (सीडीआरआई) शामिल है. जहां आईएसए का उद्देश्य सौर वित्त को सुलभ बनाना और सौर ऊर्जा की स्थापना बढ़ाना है, वहीं, सीडीआरआई का लक्ष्य जलवायु और आपदा जोखिमों के लिए बुनियादी ढांचे के लचीलेपन को बढ़ाना है. ये
प्रयास दिखाते हैं कि ग्लोबल साउथ और इंटर-गवर्नर्मेंटल पहलें क्षेत्रीय सच्चाइयों और साझा प्राथमिकताओं के आधार पर ठोस जलवायु समाधान बना सकती हैं और उसे पूरा कर सकती हैं. कॉप30 इसके लिए सही समय है.
तीन बदलाव
वादों से प्रदर्शन की तरफ बढ़ने के लिए, ये तीन बदलाव जरूरी हैं -
पहला, आपसी साझेदारी आधारित पहलें वैश्विक प्रयासों की पूरक होनी चाहिए. एक तरफ कॉप जैसे बड़े सम्मेलन व्यापक बहुपक्षीय लक्ष्यों को आगे बढ़ाते हैं, इसके समानांतर इंटर-गवर्नर्मेंटल प्रयासों को बिखरे और व्यापक बहुपक्षीय एजेंडे की जगह पर विशिष्ट क्षेत्रों और मुद्दों को लक्षित करना चाहिए, जैसे आईएसए और सीडीआरआई. भू-राजनीतिक अनिश्चितता के दौर में, ग्लोबल साउथ के मध्य मुद्दों पर केंद्रित भागीदारियां एक समान चुनौतियों के लिए मिली जमीनी सीख आपस में साझा करते हुए दक्षिण-दक्षिण साझेदारी मजबूत बना सकती हैं.
दूसरा, विश्व बैंक और यूरोपीय निवेश बैंक जैसे बहुपक्षीय विकास बैंक क्षेत्रवार परिवर्तन के लिए निवेश को सक्षम बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं. उन्हें विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए रियायती और मिश्रित (लोक-निजी) वित्त के लिए अपनी उत्प्रेरक भूमिका बढ़ानी चाहिए. सुलभ और सस्ती पूंजी के बगैर अच्छी से अच्छी साझेदारियां ठप पड़ जाती हैं.
तीसरा, उत्तरदायित्व, सामूहिक कार्रवाई का मार्गदर्शक सिद्धांत होना चाहिए. पेरिस समझौते को अपनाने और इसके विभिन्न पहलुओं पर बातचीत को एक दशक बीत चुके हैं. आने वाले दशक में इसे जमीन पर उतारने पर ध्यान देना होगा, जिसमें पारदर्शी रिपोर्टिंग, आंकने योग्य परिणाम और सरकारी व गैर-सरकारी दोनों भागीदारों की प्रतिबद्धताओं का समय-समय पर आकलन करना शामिल होना चाहिए.
दुनिया में जलवायु से संबंधित वादों की कोई कमी नहीं है. इसलिए, अब इसे एक ऐसे व्यवस्थित ढांचे की जरूरत है, जिसमें महत्वाकांक्षाएं उत्तरदायित्व से मेल खाती हो, और जहां प्रगति को घोषणाओं से नहीं, बल्कि जमीनी बदलावों से आंका जाता हो.
लेखक परिचय: मोहाना भारती मनिमारन, रिसर्च एनालिस्ट और सुमित प्रसाद, प्रोग्राम लीड, काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (CEEW) से जुड़े हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.