रणथंभौर पहले राजस्थान के शाही परिवारों के लिए एक महत्वपूर्ण शिकारगाह हुआ करता था, जो जयपुर के महाराजा की संपत्ति थी. इसे स्वतंत्रता के बाद 1955 में, अभयारण्य का दर्जा दिया गया. यहां पहले पर्याप्त संख्या में चीतल, सांभर, जंगली सुअर, नीलगाय आदि पाए जाते थे. अरावली और विंध्य पहाड़ियों के मिलन की वजह से यहां वन्यजीवों के लिए ज़रूरी सभी सुविधाएँ सुलभ थीं जैसे, चारा और जल स्रोत.
वर्ष 1972 को भारत में वन्यजीव संरक्षण के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय के तौर पर याद रखा जाएगा, जब राष्ट्रीय स्तर पर वन्यजीव रक्षा अधिनियम लागू हुआ. इससे कुछ महत्वपूर्ण लोगों पर लगाम लगाने में मदद मिली; वे चाहे पूर्व शासक हों या राजनेता या नौकरशाह जिन्होंने रणथंभौर जैसे महत्वपूर्ण वन्य जीव संरक्षित क्षेत्र को शिकार जैसे मनोरंजन की जगह बना लिया था. कैलाश साँखला और फ़तेह सिंह राठौड़ (फ़ज़्ज़ी) - रणथंभौर में वन्य जीवों के विकास में इन दो लोगों के योगदान को विशेष तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए.
नेशनल टाइगर प्रोजेक्ट की शुरुआत 1973 में हुई, और बाघों की आबादी इसी साल दोहरे अंकों में चली गई. जोधपुर निवासी, इंडियन फॉरेस्ट सर्विस के अधिकारी साँखला ने इस महत्वाकांक्षी अभियान को शुरू करने में बड़ी भूमिका निभाई और वह इसके पहले निदेशक थे. पहले चरण में, सिर्फ़ नौ वन्यजीव संरक्षित क्षेत्रों को प्रोजेक्ट टाइगर स्कीम के अधीन लाया गया. रणथंभौर इनमें सबसे अच्छे रिज़र्व्स में एक था और यह मुख्यतः साँखला के राजस्थान से व्यक्तिगत जुड़ाव की वजह से हो सका.
फ़ंड आने शुरू हुए. प्रधानमंत्री इस परियोजना की स्टीयरिंग कमिटी के पदेन अध्यक्ष होने के नाते वन विभाग के पास संसाधन थे, और उन्हें सरकार का सहयोग चाहिए था. बाघों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी और रणथंभौर सारी दुनिया में बाघों के दर्शन के लिए जाना जाने लगा.

(Photo Credit: tigerwatch.net)
रणथंभौर और प्रोजेक्ट टाइगर
बाघों की संख्या बढ़ने पर उनकी व्यवस्था के मक़सद से वर्ष 1991 में कैलादेवी अभयारण्य को रणथंभौर प्रोजेक्ट के तहत लाया गया. लेकिन शिकार और प्राकृतिक सुविधाओं की कमी की वजह से कैलादेवी बाघों को आकर्षित नहीं कर सका. आस-पास के कुछ अन्य जंगलों और सवाई मानसिंह नाम के एक छोटे अभयारण्य को भी इसी वर्ष रणथंभौर रिज़र्व में जोड़ा गया, जिससे प्रोजेक्ट टाइगर का क्षेत्र बढ़कर 1700 वर्ग किलोमीटर हो गया.
इसकी वजह से बाघों की बढ़ती आबादी को फैलाने में आसानी हुई लेकिन बाघों का मुख्य क्षेत्र 400 वर्ग किलोमीटर का ही हिस्सा रहा. यह 40 से अधिक बाघों के अलावा तेंदुओं के लिए पर्याप्त क्षेत्र था. बाघों को शिकार के लिए और अपने लिए भी जगह की ज़रूरत होती है. राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के दिशानिर्देशों के तहत एक बाघ के रहने के लिए कम-से-कम 10 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र होना चाहिए.
इस प्रोजेक्ट की सफलता की बदौलत रणथंभौर एक तरह से बाघों का मातृत्व स्थल बन गया जहां बाघों की संख्या बढ़कर 80 से ज़्यादा हो गई. इस वजह से रिज़र्व में बाघों का दर्शन भी बढ़ गया, जिससे पर्यटन बढ़ा, वाइल्डलाइफ़ फोटोग्राफर आने लगे और पर्यटन उद्योग तथा खास तौर पर होटलवालों को फायदा होने लगा. मीडिया में भी इसकी चर्चा होने लगी जिससे पर्यटन को बढ़ावा मिलने लगा.

रणथंभौर में पर्यटकों की रुचि
आज रणथंभौर आनेवाले सारे पर्यटक बाघों को देखने के इरादे से आते हैं और वहां हर क्षेत्र में जिप्सी और कैंटर घूमते रहते हैं और गाइड और ड्राइवर को टिप देते हैं. नतीजा, वे बिना सीमाओं की परवाह किए हर ओर से बाघों को घेर लेते हैं. बाघ को एक दयनीय हालत में घेरकर उसका वीडियो बनाया जाता है और वह वायरल होने लगता है. इससे लोगों के पास संदेश जाता है कि बाघ ख़तरनाक जानवर नहीं होता, बल्कि इंसानों से डरता है.
मगर यह बिलकुल ग़लत है. बाघ एक खूंखार जानवर है और उसे इंसानों का कोई डर नहीं होता. बाघ लोगों से भरी जीप या वाहन को एक बहुत खतरनाक जानवर समझ बैठता है और इसलिए दूर रहता है. लेकिन अगर ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब कोई चालाक और हिम्मती बाघ कूदेगा और जीप से पर्यटकों को लेकर भाग जाएगा.
रणथंभौर में पिछले कुछ समय में लोगों पर बाघों के हमलों की कई घटनाएं हुई हैं. इस चेतावनी को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए.
इसमें कोई शक नहीं कि बाघों के पर्यटन से कई लोगों का घर चलता है, लेकिन रिज़र्व को बनाने का उद्देश्य यह नहीं था. इसका उद्देश्य प्रकृति और विविधता का संरक्षण था, और उसमें अगर पर्यटन हो सकता हो तो वह एक अतिरिक्त चीज़ थी. इसलिए ज़रूरत है कि रणथंभौर में इको फ़्रेंडली पर्यटन की व्यवस्था की जाए, जिससे वहां की प्राकृतिक व्यवस्था बाधित ना हो. वन्य जीवों की कीमत पर पर्यटन कतई नहीं होने दिया जा सकता.
रणथंभौर में क्षमता से ज़्यादा बढ़ते बाघ
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि हर रिज़र्व की अपनी एक क्षमता होती है. रणथंभौर के क्षेत्र के हिसाब से, यहां लगभग 40 बाघ रह सकते हैं, लेकिन उनकी संख्या बढ़कर 80 से ज़्यादा हो चुकी है. इसके बावजूद रिज़र्व प्रबंधन बाघों की संख्या किसी भी कीमत पर घटने नहीं देना चाहते, भले ही वह उनकी स्वाभाविक मृत्यु क्यों ना हो. बदनामी के डर से वे बूढ़े, घायल, बीमार बाघों को भी बचाने का प्रयास करते हैं जबकि प्रकृति की बनाई व्यवस्था में इन अवस्थाओं में उनकी मृत्यु तय होती है.
वर्ष 2023 में ऐरोहेड नाम की एक बाघिन को उसके मूल क्षेत्र से हटाकर जोगीमहल इलाके में लाया गया. इस दौरान वह गंभीर रूप से घायल हो गई. लेकिन उसने तीन बच्चे दिए. स्वाभाविक परिस्थिति में बाघिन और उसके बच्चों की भूख से मौत हो जाती, लेकिन रिज़र्व प्रबंधन बदनामी से बचने के लिए नियमित रूप से उनके लिए शिकार की व्यवस्था करता रहा. इससे वे बच तो गए, लेकिन उसके बच्चों को खुद से शिकार करना नहीं आया. ऐसे में वे आसान शिकार या इंसानों को खोजने लगते हैं.

(Photo Credit: tigerwatch.net)
बाघों के हमले
संयोग से इसी जोगीमहल क्षेत्र में त्रिनेत्र गणेश का मंदिर है जो हमेशा पर्यटकों से भरा रहता है. इंसानों के इतना निकट आने से उनके मन से डर निकल गया है. इसी वजह से वहां हाल के महीनों में कई इंसानों पर हमले हुए. फ़िलहाल इस बाघिन के दो बच्चों - कनकटी और एक अन्य बाघ - को दूसरी जगह ले जाया गया है और ऐरोहेड की मौत हो चुकी है, जिससे अभी के लिए इंसानों के साथ टकराव कम हो गया है. लेकिन उस इलाके में अभी भी ऐरोहेड की एक और बेटी रिद्धि रहती है और उसे भी आसान शिकार की आदत लगी हुई है.
इसके अलावा जोगीमहल क्षेत्र में दो अन्य बाघिन सुल्ताना और नूर तथा एक बाघ T-101 रहते हैं. सुल्ताना के तीन बड़े बच्चे हैं. इस तरह से कनकटी के हटाए जाने तक जोगीमहल के 5 वर्गकिलोमीटर के इलाके में 15 बाघ मौजूद हैं. इनमें से भी कई बाघ बंधे हुए शिकारों पर आश्रित रहे हैं.
ऐसी परिस्थिति में बाघों के जिन बच्चों ने शिकार नहीं सीखा है वह आस-पास घूमते लोगों पर हमले कर सकते हैं. रणथंभौर किले के अंदर मौजूद त्रिनेत्र गणेश मंदिर के पास हमेशा से जोगीमहल क्षेत्र में रहनेवाले बाघों के हमले का खतरा रहा है. अभी जो कारण बताए गए हैं उनसे यह खतरा और बढ़ गया है. साथ ही, आस-पास रहनेवाले लोगों में गुस्सा भी बढ़ रहा है. इससे रिज़र्व की बदनामी हो रही है और श्रद्धालुओं तथा रिज़र्व में काम करनेवाले लोगों को असुविधा हो रही है.
बाघों और इंसानों को बचाने के उपाय
इसके बहुत आसान समाधान हैं -
- सिर्फ इको-फ्रेंडली पर्यटन की अनुमति हो.
- रिज़र्व का प्रबंधन इंसानों के न्यूनतम दखल से हो और बहुत ही दुर्लभ परिस्थितियों में तथा बहुत कम समय के लिए हो.
- विशेषज्ञों की एक समिति रिज़र्व में बाघों की संख्या तय करे. इनसे ज़्यादा बाघों को राजस्थान के दूसरे रिज़र्व और अन्य राज्यों में भेज दिया जाए.
- श्रद्धालुओं को त्रिनेत्र गणेश मंदिर पहुंचाने के लिए इलेक्ट्रिक रोपवे का प्रबंध किया जाए.
- सरकार यदि लोगों और बाघों के प्रति संवेदनशील है तो उसे इन आसान उपायों को लागू करने पर विचार करना चाहिए.
परिचयः सुनयन शर्मा एक पूर्व भारतीय वन सेवा अधिकारी (IFS)हैं. उन्होंने दो बार प्रोजेक्ट टाइगर सरिस्का के फ़ील्ड डायरेक्टर की ज़िम्मेदारी निभाई (1991-96 और 2008-10). वह भरतपुर स्थित केवलादेव नेशनल पार्क के डायरेक्टर रह चुके हैं जो एक वर्ल्ड हेरिटेज साइट है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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