ज़्यादा नहीं, आज से सिर्फ़ 30-40 बरस पहले तक, कम से कम भारत के उत्तरी राज्यों में, स्कूल जाने वाले अधिकतर बच्चों के लिए अंग्रेज़ी एक विषय हुआ करता था, और हिन्दी अपनी भाषा थी, लेकिन आज दृश्य पलट चुका है... आज की पीढ़ी के बहुत-से बच्चों के लिए हिन्दी सबसे 'डरावना' विषय होता है, और अंग्रेज़ी बेहद आसान... दरअसल, जब बच्चा पैदा होता है, तभी से उसके कानों में जो भाषा सुनाई पड़ती है, उससे लगाव तो हो ही जाता है, समझ भी आसानी से आ जाती है, लेकिन बोली जाने वाली भाषा को भाषा की तरह सलीके से सीखने और समझने के लिए व्याकरण का ज्ञान अत्यंत आवश्यक होता है, और यही आज की पीढ़ी की सबसे बड़ी दिक्कत है, क्योंकि जाने-अनजाने हमीं ने हिन्दी को उसकी दूसरी भाषा बनाकर रख दिया है, जिसमें कुछ साल के बाद उसके लिए सोचना और बोलना मुश्किल होता चला जाता है... तरक्की की होड़ में अंग्रेज़ी सिखाने की इसी सोच की बदौलत हिन्दी भी साइंस और मैथ्स की तरह एक सब्जेक्ट बनकर रह गई है, जिसमें सिर्फ़ पास होना काफ़ी होता है...
हर मोहल्ले के कोने-कोने में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों (English Medium Schools) में हम अपने बच्चों को शुरुआत से 'क से कबूतर, ख से खरगोश' नहीं, सिर्फ़ 'ए फॉर एयरोप्लेन, बी फॉर बस' पढ़ाते हैं, और चाहे-अनचाहे अंग्रेज़ी को उनकी पहली भाषा बना देते हैं... अधिकतर स्कूलों में अब कच्ची-पक्की नहीं, प्री-नर्सरी, नर्सरी और केजी (किंडरगार्टन या Kindergarten) होती हैं, और हम नर्सरी तक अपने बच्चे को सिर्फ़ अंग्रेज़ी का क़ायदा पढ़ाकर उसे अंग्रेज़ी में ही चीज़ों और बातों को समझने का अभ्यास करवाते हैं...
वास्तव में हिन्दी में उसका मन ही नहीं लगेगा, क्योंकि इंग्लिश में बात न करने पर फ़ाइन भरने के भय से वह इंग्लिश पर, इंग्लिश में ही परिश्रम और अभ्यास करेगा... और जब मातृभाषा हिन्दी होने के बावजूद वह इंग्लिश में ही सोचेगा, गुनेगा, तो हिन्दी का हश्र यही होगा, जो आज हमें दिख रहा है, और फिर उसकी खुद से भी शिकायत करना कतई फ़िज़ूल है...
हम सभी जानते हैं, हिन्दी को भारतीय संविधान के मुताबिक राजभाषा का दर्जा हासिल है... संविधान की आठवीं अनुसूची के अनुच्छेद 344 (1) और अनुच्छेद 351 के तहत कुल मिलाकर 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है, परंतु देश के कोने-कोने में जाएं, तो पाएंगे कि हम लोग कुल मिलाकर संभवतः 100 या उससे भी अधिक भाषाएं अथवा बोलियां बोलते हैं, जिन्हें मुल्क की ही भाषा कहा जा सकता है... समूचे देश में एक ही राजभाषा होने से जो लाभ सबसे ज़्यादा मिलता है, वह होता है कि विविधता से भरे मुल्क में सभी देशवासियों का परस्पर संवाद सरलता और सहजता से हो सके...
देश के बहुत बड़े भूभाग पर बोली-समझी जाने वाली भाषा होने के नाते हिन्दी एक ऐसी भाषा हो सकती है, लेकिन आज़ादी के लगभग 76 वर्ष और मुल्क का आईन, यानी संविधान लागू हो जाने के 73 साल बीत जाने के बाद भी हिन्दी की तरक्की तो हो ही नहीं पाई है. अंग्रेज़ी का दबदबा भी पहले के मुकाबले कुछ बढ़ा है... जहां तक मेरा सवाल है, अंग्रेज़ी का प्रभुत्व कम नहीं होना बिल्कुल भी अफ़सोसनाक नहीं है, लेकिन मेरी मातृभाषा हिन्दी को कागज़ों पर नहीं, व्यवहार में उसका उचित स्थान नहीं मिल पाना, और नए इंटरनेट चैट के युग में उसकी 'दुर्गति' होना बेहद अफ़सोसनाक है...
वास्तव में, इन हालात के लिए कहीं न कहीं कई पीढ़ियों से हमारी मानसिकता में घुसती जा रही अंग्रेज़ियत ज़िम्मेदार है, अंग्रेज़ी हरगिज़ नहीं... हम अगर मॉडर्न कहलाने और गला-काट प्रतियोगिता में शीर्ष पर जगह बनाने की मंशा से अगली पीढ़ी को इंग्लिश सिखाएं, तो कोई दिक्कत नहीं, लेकिन अगर ऐसा हिन्दी की कीमत पर करेंगे, तो वह पूरे मुल्क का नुकसान होगा...
अब इसका दूसरा पहलू विचारें... किसी भी ऐसे भारतीय नागरिक को देखना गर्व और हर्ष की अनुभूति देता है, जो इंग्लिश पढ़ता-लिखता, बोलता-समझता हो, क्योंकि ऐसा कोई भी शख्स किसी भी दूसरे देश के व्यक्ति को भारत की गौरवगाथाओं की जानकारी देकर प्रभावित कर सकता है, या किसी भी मंच पर, किसी भी स्तर पर हमारा, यानी हमारे भारत का उचित प्रतिनिधित्व कर सकता है...
अब ऐसी कल्पना कर देखें, ऐसे किसी शख्स को अगर बचपन से स्कूल या घर में हिन्दी बोलने-समझने का मौका न मिल सका हो, और अपनी मातृभाषा को समझने में दिक्कत आती रही हो, तो उसका इंग्लिश ज्ञान देश के किस काम आएगा, क्योंकि आमतौर पर किसी भी मुल्क से जुड़ी कहानियां स्थानीय निवासियों द्वारा स्थानीय भाषाओं में ही लिखी-कही गई होती हैं, सो, यदि उस शख्स को मातृभाषा का ही पर्याप्त और सटीक ज्ञान न होगा, तो उसके लिए देश को समझना क्योंकर मुमकिन हो पाएगा... इसके अलावा, यहां याद रखने लायक एक और भी ज़रूरी बात है - जिस मुल्क को आप समझ ही न सकेंगे, उसके लिए गर्व और अभिमान की अनुभूति आपके दिल में क्योंकर पैदा होगी... सो, तय है, मादर-ए-वतन को समझने के लिए मातृभाषा का अच्छा ज्ञान अनिवार्य है...
भाषा इतिहास के शुरुआती पाठों के अनुसार, किसी भी भाषा की संपन्नता, पहुंच और शक्ति के लिए वृहद्तर शब्दकोष तो आवश्यक होता ही है, यह भी अहम होता है कि भाषा नए शब्दों का निर्माण और अन्य भाषाओं के शब्दों को किस गति से आत्मसात करती है... हिन्दी में तो ये सभी गुण नैसर्गिक रूप से ही मौजूद थे, और इसी की बदौलत संस्कृत के साथ-साथ फ़ारसी, अरबी, उर्दू और इंग्लिश के भी न जाने कितने ही शब्द इस कदर हिन्दी में समाहित कर लिए गए हैं कि बहुत-से शब्दों में तो आज एहसास भी नहीं होता कि वे हिन्दी के नहीं हैं, या नहीं थे...
हमारे देश, यानी भारत में हिन्दी ऐसी भाषा है, जिसका ज्ञान रखने वाले कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कोलकाता तक मिल जाया करते हैं... सो, स्वाभाविक रूप से लगता है, हिन्दी ही वह भाषा हो सकती है, जिसमें हम अपने भारत को सबसे आसानी से जान सकेंगे... यहां एक स्पष्टीकरण भी देना चाहूंगा - ऐसा नहीं कि देश की अन्य भाषाए यह काम नहीं कर रहीं, या ऐसा नहीं कर सकतीं, लेकिन यहां मेरा मकसद ऐसी भाषा के बारे में बात करने का है, जो समूचे भारत में पहले से ही प्रसारित हो, सो, कम से कम भारत में तो ऐसी भाषा हिन्दी ही हो सकती है...
अगर वह इंग्लिश में सोचेगा, उसी में विचार करेगा, तो स्वाभाविक रूप से इंग्लिश में ही स्वयं को सरलता और सहजता से अभिव्यक्त कर पाएगा... यहां भी मुख्य मुद्दा इंग्लिश का विरोध नहीं... हरगिज़ नहीं... कतई नहीं... लेकिन अधिकतर बच्चों के लिए मातृभाषा हिन्दी की कीमत पर सीखी गई इंग्लिश का स्तर भी तो वैसा ही रह जाता है, जैसा उसकी हिन्दी का रह गया है...
दरअसल, जन्म के साथ ही हिन्दी सुनने और फिर बोलने-समझने की वजह से किसी भी बच्चे के मन में ऐसी गलतफ़हमी बेहद आसानी से घर कर जाती है कि वह हिन्दी जानता है, और जो व जितना वह जानता है, वही बिल्कुल सही है... एक किस्सा सुनाना चाहूंगा - कुछ साल पहले हिन्दी दिवस (14 सितंबर) के अवसर पर हिन्दी मुहावरों-कहावतों पर बातचीत के दौरान एक साथी का कहना था, - 'एक ही थाली के चट्टे-बट्टे'... इस पर मैंने उक्त साथी को सही मुहावरा - 'एक ही थैली के चट्टे-बट्टे' - बता दिया... यहां ध्यान दीजिए, गलत को सही बता देना कोई बड़ी बात नहीं थी, लेकिन साथी का इसके बाद जवाब आया, "अब तक हमने हर जगह थाली ही पढ़ा है... और तो और, एक फिल्मी गीत में भी 'थाली' ही बोला गया है, सो, वह गलत हो ही नहीं सकता..."
इसे सुनकर मेरे पास कहने के लिए ज़्यादा कुछ बचा नहीं था, क्योंकि दफ़्तर का वह साथी ही नहीं, मेरे अपने बच्चे भी स्कूल से 'गलत' पढ़कर आने के बाद 'सही' बताए जाने पर बहस करने की मुद्रा में तुरंत आ जाते हैं... उन्हें जब भी कुछ 'सही' बताया जाता है, 'सही' को 'सही' सिद्ध करना भी आवश्यक हो जाता है, क्योंकि अब वे आसानी से तो हम पर भरोसा ही नहीं कर पाते... देखा जाए, तो व्याकरण की पुस्तकों में आज भी कुछ गलत निश्चित रूप से नहीं है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक परिभाषा और नियम को उचित तरीके से सिखाए जाने की जैसी और जितनी कोशिश हमारे वक्त के अध्यापक-अध्यापिकाएं करते थे, वैसी और उतनी कोशिश शायद आज अध्यापक नहीं कर पाते... इसकी वजह यह हो सकती है कि शायद वे भी अपने जैसे अध्यापकों से ही पढ़कर आए हैं...
व्यक्तिगत तौर पर पूछें, तो मेरा मानना रहा है कि किसी भाषा को सीखने के लिए पाठ्यक्रम से इतर सामग्री पढ़ने का अभ्यास सबसे ज़रूरी होता है... मैं मानता हूं कि सिर्फ़ और सिर्फ़ पाठ्यक्रम में शामिल किताबों को पढ़ने से कोई भी विषय के रूप में हिन्दी सीख सकता है, लेकिन हिन्दी की बेहद व्यापक शब्दावली और हिन्दी का आलंकारिक और विभिन्न रूपों में प्रयोग वह तभी सीख सकता है, जब वह पाठ्यक्रम से बाहर निकलकर किसी का लिखा कुछ पढ़ेगा... पाठ्यक्रम में शामिल रहा मुंशी प्रेमचंद का कोई भी एक उपन्यास पढ़कर कोई कभी नहीं जान सकता कि मुंशी प्रेमचंद ने किस-किस अलग-अलग मुद्दे पर कैसा और क्या-क्या लिखा था...
हिन्दी की वर्तमान स्थिति 'पूरी तरह निराशाजनक' नहीं कही जा सकती, परंतु कम से कम महानगरों के इंग्लिश स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से बात करने पर एहसास होता है कि निराशाजनक हालात दूर भी नहीं रह गए हैं... जो बच्चा आज उनतालीस, उनचास, उनसठ, उनत्तर और उनासी के बीच फर्क को नहीं समझ सकता, वह भविष्य में साधारण देशवासियों से कैसे बात करेगा, क्योंकर देश के गौरव को समझ सकेगा...
मैं मानता हूं, हर रात सोने से पहले सीने पर रखकर किताब पढ़ना जो खुशी, जो सुकून, जो संतुष्टि देता है, वह किन्डल पर मिल ही नहीं सकती... भले ही दकियानूस कहा जाऊं, किताबों की जिल्द की अनूठी-सी गंध आज भी पढ़ने का शौक ज़िन्दा रखे हुए है... सो, सभी पढ़ने वालों से सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं, खुद भी कुछ न कुछ पढ़ें, पढ़ने की आदत डालें, और अपने बच्चों को भी देखने दें, आप कर क्या रहे हैं, क्योंकि आज भी हिन्दुस्तानी बच्चे आमतौर पर वही करते हैं, जैसा माता-पिता को करते देखते हैं... यकीन मानिए, बच्चे भी बहुत जल्द आप जैसे ही हो जाएंगे, और यदि ऐसा हुआ, तो हिन्दी के हालात सुधारने के लिए कोई प्रयास करने की ज़रूरत नहीं रहेगी...
विवेक रस्तोगी NDTV.in के संपादक हैं...
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