भारत में न्याय व्यवस्था की कछुआ चाल से लोग बहुत त्रस्त हैं, मगर आख़िरी आस भी उसी से है. एक तरफ़ अपराधियों का बोलबाला है, उसकी व्यवस्था से साँठ-गाँठ पक्की है और दूसरी तरफ़ न्याय की गुहार लिए, अदालतों में अपने पक्ष की पैरवी के लिए, ईमानदार और परिपक्व समझ वाले वकीलों की पहचान भी आसान नहीं. कुछ न्यायाधीशों तक के बारे में सुनने में आ जाता है कि वो बिकने को तैयार रहते हैं. ख़रीदार तो वही होगा जिसकी हैसियत ज़्यादा होगी और साक्ष्य कमजोर.
जस्टिस यशवंत वर्मा के यहाँ मिली नोटों की गड्डियों ने इसका सबूत भी पेश कर ही दिया है कि ये कोई कही-सुनी बात नहीं है. सेवानिवृत्त होने पर, न्यायाधीशों की सरकारी पदों पर नियुक्ति भी, उनके किए एहसानों का प्रतिफल ही होता है. ये लालसा, नेताओं ने ही पनपाई है, तो दोष तो उनका भी बराबर का है.
ये बात भी कहीं उठी थी कि अगर कोई वकील पेशेवर मुकदमे भी लड़ता है, तो वह जनप्रतिनिधि (नेता) के पद पर कैसे रह सकता है? संसद या विधानसभा में चुने जाने पर, वकील की हैसियत से प्रैक्टिस करने पर कभी ऐतराज़ क्यों नहीं किया गया?
असल में बार काउंसिल के नियम (49) इसकी इजाज़त देते हैं, और जनप्रतिनिधि क़ानून भी ऐसी कोई पाबंदी नहीं लगाता. लेकिन दूसरे सरकारी पेशों/ओहदों को यही क़ानून (सेक्शन 9 ए) और संविधान (धारा 102/191) ‘ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट' मानकर, नेताओं को पाबंद करता है.
ये अंतर्विरोध इसलिए अखरना चाहिए कि जब देश के अहम मामले की पैरवी कोई नेता बना वकील करेगा तो क्या वह अपनी पार्टी के विचार का ही पक्षधर नहीं होगा? तर्क भी उसी हिसाब से गढ़े, तोड़े-मरोड़े और पेश किए जाएँगे. ऐसे में जन-पक्ष और निष्पक्षता तो तार-तार होनी ही है.
वैसे धन के लोभ और लूट ने वकालत को ही क्या, चिकित्सकों और शिक्षकों तक को नहीं बख्शा है. इसलिए, दो रुपए लेकर इलाज करने वाले एक चिकित्सक की मौत पर देश का मन दुखता है. ऐसे लोग वाकई कम हैं या हमारी नज़रों में नहीं हैं?
न्याय का लक्ष्य
जयपुर के रामकृष्ण मिशन में डेढ़ दशक से नियमित सेवायें दे रहे प्रख्यात हड्डी रोग चिकित्सक डॉ कीर्ति कुमार राम रतन शर्मा अब 80 की उम्र को भी पार कर चुके हैं. उन्होंने इस निस्वार्थ सेवा की प्रेरणा के बारे में पूछे जाने पर मुझे एक शब्द में उत्तर दिया था - ‘ध्येय की स्पष्टता.'
समय पर, सस्ता और सही इलाज मिलना न्याय का ही पहला पड़ाव है. सबकी सेहत और सबकी जान क़ीमती है. अदालतों से ये अपेक्षा तो रहेगी ही कि वो सबकी आसान पहुँच में हों और संवेदनशील हों. किसी भी पेशे में निष्णात होकर निस्वार्थ होना और सबके समय की क़ीमत समझना, दुर्लभ गुण है.
भारत हो या वैश्विक इतिहास, सम्मान तो करुणा और न्यायप्रियता का ही रहा है. राजा विक्रमादित्य हों या चोल राजा, विजयनगर के राजा कृष्णदेवराय या फिर छत्रपति शिवाजी महाराज सब इसलिए जनप्रिय रहे. सतयुग के राजा राम तो, एक श्वान तक की व्यथा सुनने, अपने राजमहल से बाहर आए और उसे न्याय दिया.
मुगल और अंग्रेज़ी शासन में अत्याचार भी शासन प्रेरित था और न्याय की व्यवस्थाएं भी, सत्ता क़ायम रखने का तरीका थीं. इसलिए तुरंत सुनवाई और कार्यवाई होती थी. लेकिन आज भारत की न्याय व्यवस्था ऐसी है कि अकेले ज़िला न्यायालयों में ही 3.6 करोड़ आपराधिक मामले (नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड) फैसलों के इंतज़ार में हैं, जिनमें से 2.3 करोड़ साल भर से ज़्यादा पुराने हैं.
सुप्रीम कोर्ट कई ‘हाई प्रोफाइल' मामलों में तो इतनी तेज़ी से हरकत में आता है कि हैरत होती है. लगता है, चाहत हो तो सब संभव है. जबकि इसी सर्वोच्च अदालत में करीब 83 हज़ार मामले सुनवाई और फैसलों की राह देख रहे हैं. ये अभी तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है. पिछले 16 सालों में लम्बित मामलों में 64 फ़ीसदी की बढ़ोतरी होना, आपदा जैसी स्थिति है.
सकारात्मक प्रयास
भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे डीवाई चंद्रचूड़ के वक्त उठाए कई कदम, तसल्ली देने वाले थे. ई-सुनवाई और अदालती कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग जैसे फैसलों ने तकनीक के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया. इससे वकीलों और न्यायाधीशों के बीच होने वाली बहस और कार्यशैली की सच्चाई भी सामने आने लगी. न्यायाधीशों की संख्या दुगनी करने की एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में ख़ारिज तो हुई लेकिन इसके समाधान की कोई ठोस पहल न्यायाधीश नहीं कर पाए.
न्यायिक सुधार का बीड़ा भारत सरकार ने ही उठाया. आईपीसी, सीआरपीसी और एविडेंस एक्ट की जगह, भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम तो अमल में आ ही गए हैं. ये औपनिवेशिक काल में भारत को जबरन ओढ़ाया गया ‘काला चोगा' उतारने का बड़ा कदम है, जिसे जन-विश्वास क़ानून (2023) लाकर और विस्तार दिया गया. जन-विश्वास क़ानून का जो दूसरा संस्करण (2025) आया है उसमें 10 मंत्रालयों/विभागों के 16 केन्द्रीय कानूनों में शामिल 355 प्रावधानों को सुधारा गया है.
लेकिन बात अभी वहीं अटकी है, अदालत न्याय समय पर करें, ये सुनिश्चित कैसे हो? सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय ‘जस्टिस विदिन ईयर' की बात ज़ोर-शोर से उठा रहे थे. आख़िरकार, देश के गृह मंत्री ने एक सार्वजनिक मंच से ये कहा कि एफ़आईआर दायर होने के बाद तीन साल में फ़ैसला देना होगा. यानी ज़िला, उच्च और उच्चतम न्यायालय, तीनों को साल साल भर में मामले तय करने होंगे. सरकार की इस बात पर न्यायपालिका का रवैया जो भी हो, देश के हर नागरिक के लिए ये जीवन भर की तसल्ली जैसा है.
सुप्रीम कोर्ट
सर्वोच्च न्यायालय ये तो पहले ही कह चुका है कि बुजुर्गों की ओर से लड़े जा रहे मामलों में जल्दी फैसले होने चाहिए. ये भी सच है कि तकनीक और ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' (एआई) की मदद के बगैर ये बात हवा-हवाई रहेगी. सैंकड़ों-हज़ारों पन्नों को पढ़ने, सारे संदर्भ लेकर याचिकाएं तैयार करने, मुकदमों का अध्ययन और बहस की तैयारी और बयान लेने के सारे तरीके सिरे से बदले बिना, फैसलों में तेज़ी ला पाना मुमकिन ही नहीं.
तकनीक और संभावनाएँ
एआई पर आधारित एक ‘लीगल एफिशिएंसी प्रोग्राम' का अध्ययन किया तो लगा ये बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने लगे तो सरकार की मंशा को अमली जामा पहनाना आसान हो. तकनीक, समय के साथ कदमताल करने और काम की दक्षता बढ़ाने में बहुत मददगार है. इसे जल्दी अपनाने वाला अपने ही समय की क़ीमत और अपना सुकून बढ़ाकर, बाज़ी मार लेगा. दमदार पैरवी, फ़रियादी को राहत और उसके हक़, सबका रास्ता अब यहीं से निकलेगा.
इसके लिए न्यायाधीशों, वकीलों और पुलिस सबका प्रशिक्षण ज़रूरी है. उन्हें तकनीक की ताक़त और नई भाषा में बात करना सिखाना, राष्ट्र हित में है. वैसे बात तो बिना 1861 के पुलिस क़ानून को बदले बगैर भी नहीं बनेगी. अपराधियों को संरक्षण देने वाली जो छवि पुलिस की बनी हुई है, उसे तोड़ना और उन्हें पहली पंक्ति का जन-रक्षक मानते हुए, ज़िम्मेदारियाँ तय करना बड़ा काम है. इसके लिए अब ज़मीन तैयार है, ये जब होगा तब होगा. अभी ‘इंटरनेट गवर्नेंस' पुलिस, अदालत, सरकार और नागरिकों के बीच की अहम कड़ी है.
डेटा और व्यावहारिकता, स्पष्टता और पारदर्शिता सहित समयबद्धता की सारी कसौटियां, यहीं से कसी जानी हैं. ‘डिजिटल सुशासन' की समझ बने, समन्वय से संसाधन तैयार हों, और जो ज़रूरी बदलाव होने हैं, फ़ौरन हों. साथ-साथ, अदालतों पर ये सख्ती बनी रहे कि तय समय सीमा में ही फ़ैसले करने हैं. जिस ‘डेडलाइन' को मीडिया वाले, अपनी साँसें मानते रहे हैं, वही अदालतों पर दी गई न्याय की बड़ी दस्तक है. मामलों को अटकाये रखने और जनता के हाथ फ़ैसला छोड़ने वाला समाज, आख़िरकार अराजक हो जाता है. इस आपदा को समय रहते संभाल लेना परिपक्व लोकतंत्र की निशानी है.
परिचयः डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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