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Diwali 2025: दीपावली की रोशनी में उम्मीदों का कोना, शहर की जगमगाहट के बीच अंधेरी बस्तियों की 'ख़ुशी'

झुग्गियों में न पटाखों की आवाज गूंजती है, न मिठाइयों की भरमार होती है. फिर भी हर परिवार अपने स्तर पर त्योहार मनाता है. बच्चे मिट्टी के दिए जलाने में मदद करते हैं, महिलाएँ पुराने कपड़ों से पूजा स्थल सजाती हैं.

Diwali 2025: दीपावली की रोशनी में उम्मीदों का कोना, शहर की जगमगाहट के बीच अंधेरी बस्तियों की 'ख़ुशी'
अजमेर की झुग्गियों में दिवाली

Ajmer News: जहां पूरा देश रंग-बिरंगी लाइटों और सजावट से चमक रहा है, वहीं गवर्नमेंट कॉलेज के पास की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले परिवार अपनी सादगी भरी दीपावली मनाने की तैयारी में जुटे हैं. इन बस्तियों में न बिजली की चमक है, न रंगीन झालरें, लेकिन फिर भी त्योहार के प्रति आस्था और उत्साह कम नहीं. झोपड़ियों की दीवारें प्लास्टिक, बांस और पुराने होर्डिंग बैनरों से बनी हैं, और यही इनका संसार है. पुताई, नया पेंट या साज-सज्जा इनके लिए सपना भर है, फिर भी इनकी दीपावली मन से सजी होती है.

मिट्टी के दिए और चूल्हे से निकली रौशनी

इन झुग्गियों में रहने वाली शांति पवार जैसी महिलाएँ इस दिन को खास बनाने के लिए अपनी पूरी कोशिश करती हैं. शांति ने अपनी झोपड़ी के एक कोने में छोटा-सा मंदिर बनाया है, जहाँ पुरानी मूर्तियों में माता लक्ष्मी, गणेशजी, हनुमानजी और माता पार्वती की प्रतिमाएँ रखी हैं. दीपावली की शाम उन्होंने चूल्हे के पास रखे तेल को पुराने मिट्टी के दीए में डाला और एक दिया तैयार किया. फिर पूरे परिवार ने एक साथ आरती की, बिना बिजली, बिना सजावट, लेकिन पूरे भाव से. उस छोटे से दीए की लौ में इनका संसार कुछ पल के लिए सचमुच जगमगा उठा.

सादगी में भी उत्सव की झलक

यहां के लोग जानते हैं कि दीपावली सिर्फ दिखावे का त्योहार नहीं, बल्कि श्रद्धा और आशा का प्रतीक है. झुग्गियों में न पटाखों की आवाज गूंजती है, न मिठाइयों की भरमार होती है. फिर भी हर परिवार अपने स्तर पर त्योहार मनाता है. बच्चे मिट्टी के दिए जलाने में मदद करते हैं, महिलाएँ पुराने कपड़ों से पूजा स्थल सजाती हैं. कहीं कोई टिमटिमाता दिया जलता है, तो कहीं अगरबत्ती की खुशबू हवा में घुलती है. यह वही दीपावली है जो याद दिलाती है कि रोशनी केवल बिजली से नहीं, बल्कि भावनाओं से भी फैलती है.

उम्मीदों की लौ ,किसी भामाशाह की राह देखता दिल

झुग्गी-झोपड़ी के ये परिवार हर साल दीपावली पर एक ही उम्मीद संजोते हैं कि शायद कोई भामाशाह आएगा, उनके बच्चों को मिठाई देगा, और थोड़ी खुशी उनके घरों तक भी पहुंचाएगा. कई बार स्थानीय समाजसेवी संस्थाएं कपड़े या मिठाइयाँ बाँट जाती हैं, पर इन लोगों की सबसे बड़ी जरूरत अब भी वही है, स्थायी बदलाव, बेहतर जीवन और अपने घर की एक स्थायी रौशनी. दीपावली की रात जब शहर सो जाता है, तब इन झुग्गियों में वह एक दिया अब भी टिमटिमाता है, जैसे कह रहा हो,“अगली दीपावली शायद सच में हमारी भी होगी.”

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