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Shri Ekling Ji Mahadev Temple :उदयपुर का एकलिंग महादेव मंदिर, जहां बिना दर्शन किये नहीं बनता मेवाड़ का 'महाराणा', जानिए क्या है मान्यता 

मेवाड़ के शासकों ने खुद को एकलिंगजी का दीवान कहा, शासक एकलिंगजी को स्‍वीकारा इसलिए इस शैव तीर्थ की यही बड़ी विशेषता है.

Shri Ekling Ji Mahadev Temple :उदयपुर का एकलिंग महादेव मंदिर, जहां बिना दर्शन किये नहीं बनता मेवाड़ का 'महाराणा', जानिए क्या है मान्यता 

Udaipur News: राजस्थान के मेवाड़ में इन दिनों नए 'महाराणा' का 'राजतिलक' चर्चा में है. महेंद्र सिंह मेवाड़ के निधन के बाद उनके बेटे विश्वराज सिंह मेवाड़ का मेवाड़ के 77 वें 'महाराणा' के तौर पर राजतिलक हुआ है. उनके राजतिलक के बाद उदयपुर के एकलिंग महादेव मंदिर में पूजा करने की परम्परा को लेकर 2 दिन से विवाद जारी था. जो आज विश्वराज सिंह मेवाड़ के एकलिंग महादेव मंदिर में दर्शन के बाद के खत्म हो गया है. 

एकलिंग महादेव मंदिर उदयपुर का प्रमुख तीर्थ स्थल है. यह हंगामा 'धूणी' दर्शन को लेकर भी हुआ था. धूणी उदयपुर के सिटी पैलेस में है, जहां, विश्वराज सिंह के चाचा अरविंद सिंह मेवाड़ अपने परिवार के साथ रहते हैं. जब नए 'महाराणा' विश्वराज सिंह मेवाड़ धूणी दर्शन के लिए पहुंचे तो अरविंद सिंह मेवाड़ के परिवार ने सिटी के पैलेस के दरवाज़े बंद कर दिए. जिसके बाद हंगामा हो गया था.

इससे पहले अरविंद सिंह मेवाड़ के संचालन में आने वाले 'महाराणा मेवाड़ चैरिटेबल ट्रस्ट' ने एक नोटिस जारी करते हुए 'अवैध' रूप से मंदिर में प्रवेश करने पर रोक लगाई थी. हालांकि, आज पुलिस सुरक्षा के बीच नए 'महाराणा' ने एकलिंग महादेव के दर्शन करने की परम्परा निभा ली है. 

राजतिलक का दृश्य

राजतिलक का दृश्य

आइये जानते हैं, क्या है एकलिंग महादेव मंदिर और इसकी मेवाड़ के इतिहास में क्या प्रांसगिकता है?

कैलाशपुरी में है एकलिंग महादेव

राजस्‍थान के उदयपुर जिले में एक तीर्थ है - कैलाशपुरी. शिव यहां एकलिंग के नाम से विराजित है. पूर्वी भारत में जहां त्रिकलिंग की मान्‍यता रही है - उत्‍कलिंग, मध्‍यकलिंग और कलिंग. वहीं पश्चिमी भारत में एकलिंग की मान्‍यता है. मूलत: यहां का मंदिर लाकुलीश संप्रदाय का रहा है, यहां से 971 ईस्‍वी का शिलालेख मिला है. किंतु, मध्‍यकाल में वर्तमान एकलिंगजी का मंदिर बना और उसकी अलग ही पूजा पद्धति निर्धारित की गई.

मंदिर का मुख्य द्वार

मंदिर का मुख्य द्वार

लोक संस्कृति और इतिहास के जानकार डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू के मुताबिक, वर्तमान मंदिर को बहुत ही निष्ठा और गोपन रूप से बनाया गया था. महारावल समरसिंह के शासनकाल (1288) में शिवराशि इसके अधिष्ठाता रहे जो चीरवा की प्रशस्ति लिखने तक जीवित रहे. इसी समय इसकी बड़ी प्रशस्ति चित्तौड़ के कवि वेद शर्मा ने लिखी जो अब नहीं, लेकिन उसके कुछ श्लोक मिलते हैं.

अभिलेखों के आधार पर ज्ञात होता है कि यहां सर्वप्रथम भेंट आदि चढाने का कार्य मेवाड़ के पहले महाराणा हमीर ने किया.

यह विवरण महाराणा रायमल के काल के 12 मार्च, 1489 ईस्‍वी के शिलालेख में मिलता है. यह सौ श्‍लोकों वाला पद्यात्‍मक और गद्यात्‍मक शिलालेख है जिसमें इस प्रदेश की महिमा में कहा गया है -

अस्ति स्‍वस्तिमती सुपर्वजगती सौंदर्यसर्वस्‍वभूर्भूरि
श्रीर्महतीमहोविदधती श्रीमेदपाटावनी:।
भूवृन्‍दारकवृृन्‍दमन्दिरशिर: स्‍फुर्जत्‍पताकोच्‍छलच्‍चेलान्‍दोलन
वीज्‍यमानतरणिर्विभ्राजिरान्विती।। 6।।

(इस श्‍लोक का आशय है कि जो सारे जगत में क्षेम‍ कुशल कामना वाली और समस्‍त भूमि का पूरा सौंर्द्य लिए हुए है, यह मेवाड भूमि महान है और श्री धन सम्‍पन्‍न की महानता को धारण किए है, जहां पर इस समस्‍त पृथ्‍वी पर बहुत बडा आकर्षक वंदनीय मंदिरों का समूह हो और जिनके शिखर पर बहुत पताकाएं फहराती हों, जो मानो सूर्य की किरणों की चमक की उष्‍णता में पंखा जल रही हों अथवा जो उच्‍छल तरंगों के बीच आंदोलन में बहती हुई तरणी या नौका की शोभा बढ़ा रही हो)

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श्री एकलिंगजी प्रभु

डॉ. जुगनू बताते हैं कि यहां पर हारीत ऋषि हुए जो न सिर्फ शैव संन्‍यासी थे. बल्कि प्रबल वीरों की आरोहिणी सेना का संचालन करने में दक्ष भी थे साथ ही वो शासनसूत्र के संचालक भी रहे हैं . शिव उन पर प्रसन्‍न हुए और कई संपदाएं प्रदान कीं. इसी कारण मेवाड़ के नेतृत्‍व में अन्‍य राजाओं ने पश्चिमी भारत पर होने वाले हमलों से देश की सुरक्षा की. वे कई धर्म, मत, संप्रदाय वाले थे. किंतु, सभी ने एकेश्‍वर में ही अपना सर्वस्‍व स्‍वीकार किया और ये एकेश्‍वर ही एकलिंग के नाम से मशहूर हुए. 


कहा गया है कि 'एकं लिंग यस्‍य' यानि जहां पर एक ही शिवलिंग हो. शब्‍दकल्‍पद्रुम में कहा गया है जहां पर पांच-पांच कोस पर अन्‍य कोई शिवलिंग नहीं दिखाई देता हो, वहां एकलिंग होता है, वहीं पर उत्‍तम सिद्धि होती है - 

पंचक्रोशान्‍तरे यत्र न लिंगान्‍तरमीक्षते।
तदेकलिंगमाख्‍यातं तत्र सिद्धिरनुत्‍तमा।। 

यही मान्‍यता 7वीं सदी के देवीपुराण में आई है - 

एकलिंगै नदीतीरे द्रुमशैले वनेपि वा, 
पूजिता सर्वविद्यानां साधनाय फलप्रदा।।

एकलिंग महादेव पर लिखे गए दो पुराण 

इस शैवतीर्थ की महिमा में महाराणा कुंभा (1433-68 ई.) और उनके पुत्र महाराणा रायमल (1472-1509 ई.) के शासनकाल में दो ग्रंथ लिखे गए. एकलिंग माहात्‍म्‍य के नाम से कुंभा के काल में लिखे गए ग्रंथ का ही रायमल के काल में पुराणवत प्रणयन हुआ. पहले ग्रंथ के आर्याच्‍छंदों को दूसरे ग्रंथ में अनुष्‍टुप छंदों के रूप में लिखा गया और स्‍थल-पुराण की शैली में उसका विकास किया गया.

डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू बताते हैं ''इन दोनों ही ग्रंथों का अनुवाद करते समय मुझे ज्ञात हुआ कि यह शैव तीर्थ राजाओं के साथ साथ आम लोगों में भी इतना मशहूर हुआ कि यहां के शासकों ने प्रत्‍येक आज्ञा को एकलिंगजी की आज्ञा के रूप में माना. लोगों ने एकलिंगजी के जयकारे के साथ न केवल महाराणा सांगा के नेतृत्‍व को मजबूत किया बल्कि महाराणा प्रताप का भी साथ दिया. यहां के शासकों ने स्‍वयं को एकलिंगजी का दीवान कहा, शासक एकलिंगजी को स्‍वीकारा. इस शैव तीर्थ की यही बड़ी विशेषता है''.

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