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Explainer: राजस्थान की बाड़मेर लोकसभा सीट पर 'जातिवाद' में बदला 'वर्चस्व की लड़ाई' का संघर्ष!

Lok Sabha Elections 2024: बाड़मेर लोकसभा क्षेत्र में जाट समाज पूरी एकजुटता के साथ कांग्रेस प्रत्याशी उम्मेदाराम बेनीवाल के साथ दिखा तो राजपूत निर्दलीय रविंद्र सिंह भाटी के साथ और भाजपा प्रत्याशी अपनी ही समाज को अपने पक्ष में करने में पूरी तरह से सफल होते हुए नजर आए.

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Explainer: राजस्थान की बाड़मेर लोकसभा सीट पर 'जातिवाद' में बदला 'वर्चस्व की लड़ाई' का संघर्ष!
रविंद्र सिंह भाटी, कैलाश चौधरी और उम्मेदाराम बेनीवाल.

Rajasthan News: राजस्थान की सभी 25 लोकसभा सीटों पर मतदान प्रक्रिया संपन्न हो चुकी है. कहने के लिए देश की दूसरी सबसे बड़ी लोकसभा सीट त्रिकोणीय मुकाबले की चर्चाओं के चलते प्रदेश ही नहीं, देश में हॉट सीट बन गई थी. इस लोकसभा क्षेत्र में आजादी के 77 साल बाद भी सड़क, पानी, शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव सबसे बड़ा मुद्दा है. लेकिन कैसे इस बार भी चुनाव में 'जातिवाद' का मुद्दा बेहद हावी रहा? इस सीट से भाजपा, कांग्रेस जैसी राजनीतिक पार्टियों  के अलावा 9 निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में थे. लेकिन प्रचार के दौरान मुख्य मुकाबला भाजपा, कांग्रेस और लोकसभा में निर्दलीय चुनाव लड़ रहे 26 साल के युवा विधायक के बीच था. आइए जानते हैं किस तरह से चुनाव आते-आते इस त्रिकोणीय मुकाबले ने 'जातिवाद' का रूप ले लिया और आमजन की समस्याओं, अभावों, विचारधारा की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नेताओं की जातियों के बीच प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है.

जाट-राजपूत समाज के बीच राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई

साल 1952 में इस सीट के अस्तित्व में आने बाद राजपूत समाज का वर्चस्व रहा था और लगातार 3 बार राजपूत समाज के भवानी सिंह और रघुनाथ सिंह बहादुर ने निर्दलीय चुनाव जीतकर इस सीट पर राजपूत समाज का दबदबा जमाया था. 1962 में रामराज्य परिषद पार्टी से तन सिंह ने जीतकर समाज का दबदबा कायम रखते हुए संसद पहुंचे थे. लेकिन 1967 में कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार अमृत नाहटा ने पहली बार राजपूत समाज से यह सीट छीन ली और लगातार दो उन्होंने यहां से चुनाव जीता. 1977 में फिर यह सीट राजपूत समाज के कब्जे में चली गई, लेकिन इस बार तन सिंह ने पार्टी बदलते हुए जनता पार्टी से चुनाव लड़ा और एक बार फिर राजपूत समाज का दबदबा कायम किया. साल 1980 से 1989 तक लगातार दो बार फिर जैन समाज के वृद्धिचंद जैन ने सीट जीती और 1989 के चुनाव में प्रदेश के बड़े राजपूत लीडर कल्याण सिंह कालवी ने बाड़मेर जैसलमेर लोकसभा सीट से चुनाव और जीतकर केंद्र में मंत्री बने. लेकिन साल 1991 में जाट समाज के कद्दावर नेता और नागौर के मिर्धा परिवार के सदस्य रामनिवास मिर्धा ने कांग्रेस से इस सीट पर जाट समाज के दबदबे की शुरुआत की. इसके बाद 1996, 98, 99 में कांग्रेस की ही टिकट पर कर्नल सोनाराम चौधरी ने लगातार तीन चुनाव जीत कर राजपूत समाज के उम्मीदवारों को हराकर इस सीट पर जाट समाज का वर्चस्व कायम किया. 1991 से राजपूत और जाट दोनों समाजों के बीच यह सीट प्रतिष्ठा सीट बनी. 

इस तरह वर्चस्व की लड़ाई का संघर्ष जातिवाद में बदला

साल 2004 में भाजपा की टिकट पर पहली बार चुनाव लड़ रहे पूर्व वित्त विदेश रक्षा मंत्री भाजपा के संस्थापक सदस्य रहे जसवंत सिंह जसोल के बेटे मानवेंद्र सिंह जसोल ने जीत दर्ज कर एक बार फिर यह सीट राजपूत समाज के खाते में डाल दी. 2009 में कांग्रेस से एक बार फिर जाट समाज के हरीश चौधरी जीते और 2014 में जसवंत सिंह जसोल ने भाजपा से इस टिकट मांग रहे थे, लेकिन उनकी काटकर कांग्रेस से भाजपा में आए कर्नल सोनाराम चौधरी को दी गई. यही जाट और राजपूत समाज के बीच वर्चस्व की लड़ाई के संघर्ष ने जातिवाद का रूप ले लिया. जसोल की टिकट कटने राजपूत समाज में भाजपा के जबरदस्त रोष देखने को मिला जसवंत सिंह ने निर्दलीय चुनाव लड़ा जिसके चलते राजपूत और जाट समाज के बीच इस चुनाव में जबरदस्त संघर्ष देखने को मिला. 2019 में जसवंत सिंह बेटे मानवेंद्र इसी नाराजगी के चलते पार्टी छोड़ कांग्रेस में शामिल हो गए. चुनाव लड़ा, लेकिन एक बार जाट समाज से ही चुनाव लड़ रहे कैलाश चौधरी से रिकार्ड तोड अंतर से चुनाव हारे. 

वोटिंग से ठीक पहले आखिरी समय पर पटला गेम

इस चुनाव में दोनों ही राजनीतिक पार्टियों ने जाट समाज के नेताओं को प्रत्याशी बनाया और राजपूत समाज ने मिलकर एक सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला लिया. शिव विधानसभा से विधायक रविंद्र सिंह भाटी ने लड़ा, जिसके बाद माना जा रहा था दोनों पार्टियों के प्रत्याशी जाट समाज के होने से निर्दलीय रविंद्र सिंह भाटी को इसका फायदा मिलेगा. लेकिन एक बार फिर जाट और राजपूत समाज ने इस चुनाव समाज के वर्चस्व की लड़ाई माना. इसके बाद जाट समाज पूरी एकजुट के साथ कांग्रेस प्रत्याशी उम्मेदाराम बेनीवाल के साथ दिखा तो राजपूत निर्दलीय रविंद्र सिंह भाटी के साथ और भाजपा प्रत्याशी अपनी ही समाज को अपने पक्ष में करने में पूरी तरह से सफल होते हुए नजर आए. अब नतीजे के बाद ही स्पष्ट हो पाएगा कि इस सीट से जाट समाज अपना दबदबा रख पाता हैं या राजपूत समाज 20 साल बाद सीट पर वापसी करता है.

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