देश दुनिया में सिद्धपीठ के रूप में प्रसिद्ध मां शाकंभरी के दरबार में नवरात्र में उत्सव जैसा माहौल बना हुआ है. अरावली की वादियों में उदयपुरवाटी कस्बे से 16 किमी दूर सकराय गांव में स्थित मां शाकंभरी के दरबार में शतचंडी पाठ सहित विभिन्न अनुष्ठान किए जा रहे हैं. देश के कोने-कोने से आए श्रद्धालुओं का जमघट लगा हुआ है. धर्मशालाएं श्रद्धालुओं से अटी हुई हैं. हर रोज मां की विशेष पूजा अर्चना की जा रही है. यूं तो मां को सभी तरह का भोग लगता है, लेकिन खासकर हलवा-पूड़ी का भोग मां को सर्वाधिक पसंद है. मंदिर के महंत दयानाथ महाराज के अनुसार, देश में मां शाकंभरी के प्राचीन दो ही मंदिर हैं. पहला प्राचीन मंदिर यहां शाकंभरी (सकराय) में तो दूसरा उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में है.
मंदिर के पुजारी पंडित राजेंद्र शर्मा के अनुसार माता को हलवा पूरी का भोग लगता है. प्रतिदिन सुबह साढ़े पांच बजे और शाम को पौने सात बजे माता की आरती होती है. यहां आने वालों श्रद्धालुओं की माता हर मनोकामना पूर्ण करती हैं, जिस रूप में हम माता को देखते हैं, उसी रूप में वह हमें दिखाई देती हैं. नवरात्रि में माता के दरबार में जात, जुड़ूला उतारने के लिए और दर्शनों के लिए श्रद्धालुओं का जमघट लगा हुआ है.
शाकंभरी माता मंदिर
जहां मां शाकम्भरी और मां काली एक साथ विराजमान, लेकिन दोनों को सात्विक भोग ही लगता है. उदयपुरवाटी का शाकंभरी मंदिर देश-दुनिया में अपना अलग ही स्थान रखता है. यहां मां शाकम्भरी (ब्रह्माणी) के साथ काली मां (रूद्राणी) भी विराजमान हैं. दोनों के रूप अलग हैं और भोग अलग हैं. लेकिन यहां दोनों को सात्विक भोग ही लगता है.
एक रोचक कहानी
कहा जाता है कि यहां पहले मां शाकम्भरी अर्थात ब्रह्माणी को सात्विक और रूद्राणी को तामसिक भोजन परोसा जाता था. भोग के समय देवी की मूर्तियों के बीच पर्दा लगाया जाता था. एक दिन भूलवश मां ब्रह्माणी अर्थात शाकम्भरी के भोग के थाल से रूद्राणी अर्थात काली के भोग का थाल छू गया. तब मां की मूर्ति का मुख तिरछा हो गया. इसके बाद से यहां तामसिक भोग की प्रथा बंद हुई. दोनों माताओं को सात्विक भोग ही दिया जाता है.
पांडवों ने की थी यहां पूजा
शास्त्रों के अनुसार, महाभारत काल में पांडव अपने भाईयों और परिजनों के वध के पाप से मुक्ति पाने के लिए कुछ समय के लिए अरावली की पहाड़ियों में रुके थे. इस दौरान युधिष्ठिर ने पूजा-अर्चना के लिए मां शर्करा की स्थापना की थी. इसी को अब शाकम्भरी तीर्थ के नाम से जाना जाता है. यह अब आस्था का केंद्र बन चुका है. इसे सकराय माताजी के नाम से भी जाना जाता है.
मंदिर का इतिहास
इस मंदिर में कई शिलालेख मौजूद हैं जिनके अनुसार मंदिर का मंडप आदि बनाने में धूसर तथा धर्कट के खंडेलवाल वैश्यों ने सामूहिक रूप से धन इकट्ठा कर इसका निर्माण 7वीं शताब्दी में कराया था. यहां देवी शंकरा, गणपति तथा धन स्वामी कुबेर की प्राचीन प्रतिमाएं मौजूद हैं. पुजारी अंकित के अनुसार विक्रम संवत 649 ई में मंदिर के जीर्णोद्धार का उल्लेख है. यानी इससे भी पहले का मंदिर है.
शाकंभरी देवी की महिमा
देवयुग में जब भीषण अकाल पड़ा, तब माता ने स्वयं शाक (फल-फूल) के रूप में प्रकट होकर लोगों को भोजन दिया था. इसलिए इनका दूसरा नाम सकराय माता भी है. तब से ही शाकंभरी देवी को भक्तों पर जल्दी कृपा करने वाली भी बताया जाता है. शाकम्भरी का दुर्गासप्तशती के 11 अध्याय में भी वर्णन मिलता है.
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