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This Article is From Aug 10, 2023

...आखिर राजस्थान के बूंदी जिले का यह गांव क्यों कहलाता है 'विधवाओं का गांव'

डॉ कुलदीप मीना ने बताया, बूंदी जिले में सरकार ने सिलिकोसिस के 13 हॉट स्पॉट चिह्नित किए हैं, और इन सभी स्थानों पर स्वास्थ्य विभाग द्वारा कैम्प लगाकर लोगों को जाग्रत किया जा रहा है. इसके अलावा उन्हें सुरक्षा उपकरण भी दिए जाते हैं, जिनसे वे खुद का इस रोग से बचाव कर सकें.

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बूंदी जिले के बुधपुरा गांव के ग्राम विकास अधिकारी ने बताया, "70 फीसदी महिलाएं विधवा हैं..."

बूंदी:

राजस्थान की राजधानी जयपुर को 'गुलाबी नगरी', जोधपुर को 'नीली नगरी', जैसलमेर को 'सुनहरी नगरी' और उदयपुर को 'झीलों की नगरी' कहा जाता है, लेकिन अब राजस्थान में बूंदी जिले का एक गांव 'विधवाओं के गांव' के तौर पर मशहूर होने लगा है. मशहूर हो रहा है कि राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र में स्थित बूंदी जिले से 85 किलोमीटर दूर बसे बुधपुरा गांव में पुरुषों को बुढ़ापा नहीं आता, उन्हें जवानी में ही मौत गले लगा लेती है, और इसी वजह से यहां विधवाओं की तादाद काफी बढ़ चुकी है, और 35 साल से ज़्यादा उम्र की ज़्यादातर महिलाएं विधवा हैं. इस गांव में बने डरावने हालात की वजह है 'सिलिकोसिस' नामक रोग, जो इस गांव के निवासियों के लिए नियति बन चुका है.

4,500 की आबादी वाले बुधपुरा को बरड़ क्षेत्र का हिस्सा कहा जाता है, जहां आसपास के इलाके में चारों तरफ खदानें हैं. इन खदानों में काम करने के लिए अलग-अलग जिलों व राज्यों से मज़दूर आते हैं, और फिर यहीं बस जाते हैं. बाहर से आए आठ से 10,000 मज़दूरों की आबादी को जोड़ लिया जाए, तो इलाके की कुल आबादी 12 से 15,000 लोगों की है. सिंचाई के साधनों की कमी और रोज़गार का अन्य कोई साधन न होने के चलते गांव के लगभग 80 फीसदी पुरुष पत्थरों की घिसाई के काम से ही जुड़े हैं, जहां उड़ता रहने वाला पत्थर का बुरादा (सिलिका) धीरे-धीरे इन लोगों के सीने में जमता जाता है, और आखिरकार 'सिलिकोसिस' का रूप ले लेता है. इलाके में उड़ती रहने वाली बारीक धूल की वजह से लोगों को तपेदिक (TB) भी जकड़ लिया करती है.

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सो, धूल-मिट्टी की वजह से हुए सिलिकोसिस या टीबी के साथ-साथ गरीबी के चलते भी इलाज मुमकिन नहीं हो पाता, और जवानी में ही बहुत-से मज़दूर गुज़र जाते हैं, और अब तो कम उम्र में मौत हो जाने को लेकर बदनाम हो चुके गांव के युवकों का विवाह होना भी मुश्किल होता जा रहा है. सिलिकोसिस को खौफ इतना बढ़ चुका है कि इलाज के दौरान जब अस्पताल में मरीज़ को सिलिकोसिस होने का प्रमाणपत्र दिया जाता है, तो उसे स्थानीय लोग 'डेथ वॉरन्ट' या 'ऊपरवाले का बुलावा' कहकर पुकारते हैं.

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'विधवाओं के गांव' का सबसे डरावना सच यह है कि यहां के पुरुषों की कम उम्र में मौत हो जाने के बावजूद उनकी विधवाओं को घर में चूल्हा जलाने के लिए 'बीमारियों का घर' कही जाने वाली उन्हीं खदानों में काम करने जाना पड़ता है. एक और डरावना पहलू यह है कि यहां के पुरुष और स्त्री कम उम्र में ही बूढ़े दिखने लगते हैं, क्योंकि रोग उनके शरीर को तोड़ता जा रहा है.

हमारे गांव में 75 फीसदी महिलाएं विधवा हैं : दुर्गाबाई

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टीम NDTV ने बुधपुरा में ही रहने वाली 67-वर्षीय दुर्गाबाई से बात की, तो उन्होंने बताया कि उन्हें बलुआ पत्थर तोड़ने का काम करते हुए लगभग 50 साल हो गए हैं, और पूरे परिवार को यही काम करना पड़ता है. दुर्गाबाई के पति का देहांत एक वर्ष पहले सिलिकोसिस की वजह से हुआ था. दुर्गाबाई ने यह भी बताया कि गांव की लगभग 75 फीसदी महिलाएं विधवा हैं, और ज़्यादातर के पति सिलिकोसिस या टीबी का शिकार होकर ही गुज़रे हैं. दुर्गाबाई के मुताबिक, उन्हें अब तक सरकार की ओर से खास सहायता नहीं मिली है.

ज़्यादातर मौतें सिलिकोसिस से हुईं : जानकीबाई

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पास में ही मौजूद जानकीबाई को भी पत्थर तोड़ते हुए 15 साल बीत गए हैं, और उनके पति की मौत पांच साल पहले सिलिकोसिस से हो गई थी. अब घर का खर्च चलाने के लिए और परिवार का पेट भरने के लिए यही काम करना पड़ता है. जानकीबाई ने भी बताया कि उनके गांव को 'विधवाओं का गांव' कहा जाता है, और अधिकतर मौतों का कारण सिलिकोसिस रोग ही है.

"सरकारी सहायता से तो सिर्फ़ कर्ज़ा ही चुका..."

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पत्थर तोड़ती तीसरी विधवा बुज़ुर्ग महिला, जिनका नाम हम नहीं जान पाए, ने कहा, उनके पति की मौत भी सिलिकोसिस से ही हुई थी, और अब छह सदस्यों वाले परिवार का पेट पालने के लिए उन्हें और परिवार के अन्य सभी सदस्यों को पत्थर तोड़ने का ही काम करना पड़ता है. सरकारी सहायता के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि सरकारी सहायता के तौर पर जो रकम हाथ आई थी, वह साहूकार का कर्ज़ चुकाने में ही सर्फ़ हो गई, जो पति के इलाज के लिए लेना पड़ा था.

"पति बच तो गए, लेकिन दवाएं तो चाहिए ही..."

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नेशनल हाईवे के किनारे बैठकर पत्थर तोड़ती झालावाड़-निवासी 50-वर्षीय लक्ष्मी ने बताया, इस काम में समूचा परिवार 10 साल से लगा है. पत्थर तोड़ते-तोड़ते साड़ी से मुंह पोंछते हुए लक्ष्मी ने कहा, मेरे पति भी यही काम करते थे, लेकिन सिलिकोसिस की जकड़ में आने के बाद समय पर इलाज मिलने से वह बच तो गए, लेकिन अब काम करने लायक नहीं रहे. पति की दवाओं और घर का खर्च चलाने के लिए समूचे परिवार को पत्थर तोड़ने पड़ते हैं.

70 फीसदी महिलाएं हैं विधवा : ग्राम विकास अधिकारी

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बूंदी जिले के ग्राम पंचायत, बुधपुरा के ग्राम विकास अधिकारी विवेक बताते हैं, गांव का दूसरा नाम 'विधवाओं का गांव' है, क्योंकि यहां 70 फीसदी महिलाएं विधवा हैं. यह माइनिंग इलाका है, और खदानों से निकलने वाले मिट्टी के छोटे-छोटे कण सांसों के साथ मज़दूरों के फेफड़ों में पहुंचते हैं, जिससे सिलिकोसिस उन्हें जकड़ लेती है, और वे गुज़र जाते हैं. सभी मज़दूरों को समय-समय पर जागरूक करने के लिए सरकारी और प्राइवेट संस्थाओं द्वारा कैम्प भी लगाए जाते हैं, लेकिन मौतों का आंकड़ा काफी रहता है. बुधपुरा की मूल जनसंख्या तो 4,500 ही है, लेकिन बाहर से मज़दूरी करने आए 10,000 व्यक्ति भी यहीं रहते हैं.

"एक बार सिलिकोसिस हुआ, तो सिर्फ़ 5 साल की रह जाती है ज़िन्दगी..."

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सिलिकोसिस जांच अधिकारी डॉक्टर कुलदीप मीना का कहना है, पहली बार यह सुनकर अचंभा हुआ था कि बुधपुरा को 'विधवाओं का गांव' भी कहा जाता है. इसके बाद उन्होंने जानकारी जुटाई, तो सिलिकोसिस के ढेरों मरीज़ सामने आए, और टीबी के भी. डॉ कुलदीप मीना के मुताबिक, सिलिकोसिस जटिल रोग है, और इसके मरीज़ का पूरी तरह ठीक होना मुमकिन ही नहीं है. उन्होंने तो यहां तक कहा कि एक बार सिलिकोसिस की चपेट में आने के बाद किसी भी शख्स की ज़िन्दगी ज़्यादा से ज़्यादा पांच साल की ही रह जाती है, इसलिए इस बीमारी से बचने का एकमात्र उपाय बचाव ही है.

डॉ कुलदीप मीना ने यह भी बताया कि बूंदी जिले में सरकार द्वारा सिलिकोसिस के 13 हॉट स्पॉट चिह्नित किए गए हैं, और इन सभी स्थानों पर स्वास्थ्य विभाग द्वारा कैम्प लगाकर लोगों को जाग्रत किया जा रहा है. इसके अलावा उन्हें सुरक्षा उपकरण भी दिए जाते हैं, जिनसे वे खुद का इस रोग से बचाव कर सकें.

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