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मल्लीनाथ पशु मेला: घोड़ों के शौकीनों के लिए हर साल सजता है मेला, ऊंट की सवारी से लेकर घुड़सवारी तक का लिया मजा

पश्चिमी राजस्थान का प्रसिद्ध मल्लीनाथ पशु मेला अब समाप्त होने वाला है. मेले में 10 दिन रहने के बाद अब अधिकांश पशु अपने मालिकों के पास लौट चुके हैं,

मल्लीनाथ पशु मेला: घोड़ों के शौकीनों के लिए हर साल सजता है मेला, ऊंट की सवारी से लेकर घुड़सवारी तक का लिया मजा
प्रताकात्मक तस्वीर

Mallinath Pashu Mela: पश्चिमी राजस्थान का प्रसिद्ध मल्लीनाथ पशु मेला अब समाप्त होने वाला है. मेले में 10 दिन रहने के बाद अब अधिकांश पशु अपने मालिकों के पास लौट चुके हैं, लेकिन बाजार में अभी भी चहल-पहल बनी हुई है. मेले में आस-पास के ग्रामीण इलाकों और शहरों से हजारों लोग खरीदारी के लिए आ रहे हैं. इसके चलते बर्तन, लाठी, तिरपाल, तलवार और अन्य दुकानों पर खरीदारों की भारी भीड़ देखी जा सकती है.

घोड़ों के लिए फेमस है यह मेला

इस मेले में घोड़े प्रेमी घोड़े खरीदकर लाते हैं और उनका प्रदर्शन करते हैं. 25 मार्च को मेला शुरू होने से 10 दिन पहले ही इस मेले में अलग-अलग नस्ल के घोड़े आने शुरू हो जाते हैं. 29 मार्च को प्रतियोगिता के बाद घोड़े वापस लौटना शुरू हो जाते हैं. और घोड़े प्रेमी अपनी खरीदी हुई चीज़ों को प्रदर्शित भी करते हैं.

सारी चीजें एक ही जगह जाती हैं मिल

इसके अलावा पशुपालकों के साथ खेती से जुड़े लोग औजार खरीदने के लिए भी इस मेले में आते हैं. किसान यहां खेती में इस्तेमाल होने वाले औजार और उपकरण खरीदते हैं. उनका कहना है कि मेले में उनकी जरूरत की सारी चीजें एक ही जगह मिल जाती हैं, भले ही बाजार से थोड़ी महंगी हों लेकिन यहां की गुणवत्ता अच्छी है.

भुने हुए चने माने जाते है मल्लिनाथ जी का प्रसाद

पूरे मेले में खरीदारी करने के बाद लोग एक चीज लेना नहीं भूलते और वो है ताज़ा भुने हुए चने. इन चनों को बेचने वाली दुकानों पर भीड़ उमड़ती है और एक से दस किलो भुने हुए चने बड़े चाव से खरीदते हैं. उनका कहना है कि इन चनों को मल्लिनाथ जी का प्रसाद कहा जाता है. चने के बिना खरीदारी अधूरी रहती है. लोग मेले में स्थित मल्लिनाथ जी के मंदिर में दर्शन कर और प्रसाद चढ़ाकर खुशहाली की कामना करते हैं.

ऊंट की सवारी का लेते है मजा

मेले के बाजार में खरीदारी के बाद शाम होते ही लोगों की भीड़ ऊंट की सवारी का भी लुत्फ उठाती है. लोगों का कहना है कि यह मेला सिर्फ पशु मेला नहीं है, बल्कि हमारी लोक विरासत और संस्कृति का भी हिस्सा है. समय के साथ पशुओं की उपयोगिता कम होने से इसका महत्व कम होता जा रहा है, लेकिन इसे जीवित रखना हमारा कर्तव्य है.

14वीं शताब्दी से चला आ रहा है मल्लिनाथ मेला

14वीं शताब्दी से चले आ रहे इस मेले में, सरकारी तंत्र भले ही कमजोर दिखाई देता है, लेकिन यहां आने वाले पशुपालकों, किसानों और ग्रामीणों के खिले हुए चेहरे इस विरासत को सहेजते हुए दिखाई देते हैं. भले ही यह मेला कुछ दिनों बाद समाप्त हो जाएगा, लेकिन यहां से खरीदे हुए सामान और चनों का स्वाद इसकी यादों को साल भर ताजा रखता है.

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