भारत में कुंभ की शुरुआत लगभग 3000 साल पहले हुई जब समाज में एक परिस्थिति का निर्माण हुआ. तब कुछ लोग प्रकृति के विरुद्ध काम करते थे और नदियों को गंदा करने जैसे काम कर रहे थे. प्रकृति का शोषण, अतिक्रमण और प्रदूषण करने वाले ऐसे लोगों को राक्षस कहा गया. वहीं कुछ लोग प्रकृति के संरक्षण का काम कर रहे थे. इन्हें देवता कहा गया. लेकिन देवता और राक्षस की पहचान कैसे हो? इसके लिए राजा, प्रजा और संत एक साथ बैठते थे और तय करते थे कि ऐसे कौन लोग हैं जो समाज के लिए शुभ हैं और पुण्य कर्म कर रहे हैं. इसी तरह बुरा कर्म करने वाले लोगों की भी पहचान होती थी. बुरा कर्म करने वालों के प्रति तिरस्कार का भाव रखा जाता था और अच्छा कर्म करने वालों के लिए सम्मान का भाव प्रकट किया जाता था.
कुंभ में यह भी तय होता था कि अमृत क्या है और जहर क्या है, यानी प्रकृति के लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है. यह पहचान की जाती थी कि ऐसे कौन लोग हैं जो नदियों में जहर घोल रहे हैं और कौन हैं जो नदियों में अमृत बना कर रखना चाहते हैं. इसी उद्देश्य से तीन नदियों के किनारे 45 दिनों तक चिंतन-मनन चलता रहता था. गंगा के तट पर दो कुंभ लगते हैं, हरिद्वार और प्रयागराज में. क्षिप्रा नदी के तट पर उज्जैन में और गोदावरी नदी के किनारे नासिक में कुंभ लगता है. ये चारों कुंभ नदियों के किनारे ही होते हैं.
उत्सव बन कर रह गया कुंभ
उन दिनों समाज में नदियों की शुद्धता और इन नदियों के रास्ते की हरियाली की बहुत चिंता की जाती थी. इस पर मनन करने वाले लोगों को देवता कहा जाता था. कालांतर में देवता और राक्षसों की पहचान करना थोड़ा कठिन हो गया. देवताओं में राक्षस और राक्षसों में देवता मिलने लगे. उसी काल में कुंभ का असल अर्थ भटक गया. इसके बाद से कुंभ केवल नदियों का सम्मान करने का एक उत्सव बन कर रह गया. इसमें नदी की आरती की जाती थी और नदी के किनारे जाकर मां गंगा को सम्मान दिया जाता था. बाद के दिनों में कुंभ सिर्फ शाही स्नान का आयोजन बन कर रह गया जिसमें अखाड़े, आचार्य, शंकराचार्य स्नान करने आते हैं. लेकिन कुंभ के असल चिंतन, अर्थ और साध्य को लोग भूल गए.
इस 21वीं शताब्दी में यदि हमें नदियों को शुद्ध और सदानीरा बना कर रखना है तो हमें सीख लेनी चाहिए और पहले की तरह कुंभ का आयोजन करना चाहिए. कुंभ का आयोजन बहुत वैज्ञानिक विधि से उस स्थान पर और उस काल में होता था जहां सूर्य, बृहस्पति और पृथ्वी एक सीध में हों और बृहस्पति की स्थिति ऐसी हो कि वो पृथ्वी के सबसे निकट हो. हज़ारों वर्ष पूर्व भारत के मनीषियों, ज्योतिषज्ञों और गणितज्ञों ने इस कालखंड को इन ग्रहों के साथ देखना शुरू किया था. उसी व्यवस्था से कुंभ का निर्धारण होता रहा है मगर कुंभ की विधि, प्रकार और प्रक्रिया विकृत हुई है.
पहले जो वैचारिक मंथन होता था वो साझे भविष्य को बेहतर बना कर रखने और भविष्य तथा वर्तमान को रोगमुक्त रखने के बारे में होता था. कुंभ की सबसे बड़ी चुनौती होती थी कि नदियों में गंदा पानी ना मिले और अमृत में ज़हर को मिलने से रोका जाए. इसी चुनौती पर राजा-महाराजा, संत और समाज मिल कर विचार करते थे और जो भी विधान तय होता था उसका मिल कर पालन किया जाता था.
नदियों के जल में होता था विशिष्ट गुण
तब इन नदियों के जल में विशिष्ट गुण होता था. जैसे, गंगा नदी के जल में 17 प्रकार के रोगाणुओं को नष्ट करने वाला बायोफ़ाज होता था जिसे मेडिकल साइंस में बैक्टीरियो साइडल भी कहते हैं. संस्कृत में इसे ब्रह्मसत्व कहते थे. इसे भारत के लोग बहुत अच्छी तरह से पहचानते थे. गंगा जल के अमृत से 17 प्रकार की बीमारियों का इलाज हो जाता था. हर इंसान की इच्छा होती थी कि वह अपने अंतिम क्षण में मोक्षदायिनी गंगा जल की दो बूंदें अपने कंठ में रख कर ही जाए. लेकिन कालांतर में हम इस वैदिक ज्ञान को भूलते चले गए और कर्मकांड में फंस गए और कुंभ के असली विधान को भूल गए.
भारत को यदि अपनी नदियों को शुद्ध सदानीरा बनाना है, तो पहले समाज को नदियों के साथ जोड़ना होगा. आज समाज नदियों से टूट गया है. आज वह नदी में स्नान करने जाता है तो अपनी लालचपूर्ति के लिए जाता है और मानता है कि इससे उसका पाप धुल जाएगा. इस भाव से तो हमारे और बुरे दिन आएंगे. इससे हमें बचना है तो हमें सही में मान लेना चाहिए कि मां गंगा के जल को ब्रह्मसत्व से परिपूर्ण रखने के लिए हमें गंगाजी को सूरज, हवा और मिट्टी के स्पर्श के साथ आज़ादी से रहने का अवसर देना चाहिए.
आज हिमालय के कई हिस्सों में गंगाजी और दूसरी नदियों को टनेल में डाला जा रहा है जिससे इन नदियों का गुण तत्व ख़त्म हो रहा है. जब पानी को रोका जाता है तो उसके साथ आ रहा हिमालय के पत्थरों की भभूति या सेडिमेंट वहीं जम जाती है जिससे पानी के ऊपर काई जमने लगती है. इससे गंगाजी का मूल चरित्र बदल जाता है और अब वही हो रहा है. जब वह आजादी से बहती थी तो उसका वह मूल गुणत्व उसके साथ गोमुख से शुरू होकर गंगासागर तक जाता था. अब वह ऊपर टेहरी बांध और दूसरी जगहों पर ऊपर ही रुक जाता है. हालांकि, अभी भी कहीं-कहीं गंगाजी के जल में वह बायोफाज मिल जाता है जो दूसरी नदियों की अपेक्षा अलग है. इसी वजह से अभी भी लोगों की गंगाजी में आस्था है. लेकिन गंगा की शुद्धता, स्वच्छता और निर्मलता पर शंका पैदा होती है. कुंभ यदि अपने मूल स्वरूप में आएगा तो इससे भारत की नदियां एक बार फिर शुद्ध सदानीरा हो जाएंगी. (बातचीत पर आधारित)
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राजेंद्र सिंह अलवर स्थित जाने-माने पर्यावरणविद् हैं.राजस्थान में जल संरक्षण और जल प्रबंधन के क्षेत्र में किए गए काम के लिए वर्ष 2001 में उन्हें मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
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