
Rajasthan: चित्तौड़गढ़ के आली गांव में शनिदेव के दर्शन के लिए दूर-दराज से हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं. श्रद्धालुओं की संख्या का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बीते 30 वर्षों में यहां तीन बड़े तेल के कुंड बनवाए गए हैं और तीनों भर चुके हैं. पहला कुंड 1996, दूसरा 2008 और तीसरे तेल कुंड का निर्माण 2014 में करवाया गया था. इन तीनों कुंडों की दीवारें पक्की बनाई गईं, जबकि नीचे की सतह कच्ची ही रखी गई है, जिससे तेल ज़मीन में रिसता रहता है. यहां चढ़ाए गए तेल का कोई व्यावसायिक या घरेलू उपयोग नहीं किया जाता.
तेल और काला तिल चढ़ाते हैं भक्त
आली गांव के शनिदेव मंदिर में शनिवार और अमावस्या के दिन भारी भीड़ उमड़ती है. भक्तों को दर्शन के लिए घंटों इंतज़ार करना पड़ता है. मेवाड़, मालवा, मारवाड़ सहित अन्य स्थानों से भी लोग यहां दर्शन के लिए आते हैं. श्रद्धालु शनिदेव को तेल और काला तिल चढ़ाते हैं.
तीनों तेल के कुंड भर गए
मंदिर ट्रस्ट ने श्रद्धालुओं की आस्था को देखते हुए 1995 में पहला तेल कुंड बनवाया था, जिसकी लंबाई 64 फीट, चौड़ाई 23 फीट और गहराई 14 फीट है. चारों तरफ की दीवारें पक्की बनवाई गई हैं. जैसे-जैसे श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ी, वैसे-वैसे तेल चढ़ावे की मात्रा भी बढ़ती गई. परिणाम स्वरूप, 12 साल बाद मंदिर प्रबंध समिति को दूसरा तेल कुंड बनवाना पड़ा, जिसकी लंबाई 65 फीट, चौड़ाई 25 फीट और गहराई 18 फीट है.

शनि देव को चढ़ने वाला तेल इसी कुंड में जाता है.
जमीन में रिसने लगा तेल
तेल का कोई उपयोग नहीं किया जाता और तेल ज़मीन में रिस रहा है. लोगों की मन्नतें पूरी होने पर वे यहां आकर तेल चढ़ाते हैं. दूसरा भी भर गया तो 6 वर्षों में ही तीसरा तेल कुंड बनवाना पड़ा, जिसका निर्माण 2014 में किया गया. यह पहले दोनों कुंडों से बड़ा है, जिसकी लंबाई 84 फीट, चौड़ाई 50 फीट और गहराई 40 फीट है.

तीसरा तेल का कुंड 2014-15 में बनवाया गया था, जिसका बोर्ड लगा है.
ट्यूबवेल और कुओं में जाने लगा तेल
खास बात यह है कि तीनों तेल कुंडों की दीवारें तो पक्की हैं, लेकिन नीचे की सतह कच्ची ही रखी गई है, जिससे लाखों लीटर तेल रिसकर ज़मीन में समा जाता है. स्थानीय लोग बताते हैं कि तेल कुंड के आसपास लगभग आधे से एक किलोमीटर की परिधि में स्थित ट्यूबवेल और कुओं में भी पानी के साथ तेल मिलने लगा है.
चर्म रोग के इलाज में तेल का उपयोग होता है
कुंड के तेल का उपयोग केवल चर्म रोग (त्वचा रोग) के इलाज के लिए किया जाता है. एक बार इस तेल को व्यावसायिक उपयोग के लिए बाहर निकालने की कोशिश की गई थी, लेकिन जैसे ही तेल को बाहर निकाला गया, वह अपना गुण खो बैठा और सिर्फ तरल पानी रह गया. ऐसे कई प्रयास असफल रहे और इसे भी शनिदेव का चमत्कार माना गया. यहां प्रसाद के रूप में चूरमा-बाटी बनाई जाती है. बताया जाता है कि बालभोग चढ़ने से पहले तक चींटियां इस प्रसाद को छूती तक नहीं हैं. यही बात चढ़ाए गए तेल के बारे में भी कही जाती है. इस पर चींटियां नहीं लगतीं. जिसे लोग चमत्कार मानते हैं.
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