ACB Action: राजस्थान में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (ACB) लगातार भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों को रिश्वत के साथ रंगे हाथ ट्रैप कर रही है. लेकिन राजस्थान हाई कोर्ट के हालिया आदेश और टिप्पणी से शायद घूसखोर अधिकारियों और कर्मचारियों के हौंसले बुलंद हो सकते हैं. राजस्थान हाईकोर्ट ने शनिवार (20 दिसंबर) को 2007 के एक कथित भ्रष्टाचार मामले में रेलवे पुलिस बल (RPF) के तीन कर्मचारियों को बरी करते हुए कहा कि किसी भ्रष्टाचार के आरोपी को सज़ा देने के लिए केवल ट्रैप (रिश्वत के साथ पकड़े जाने) की कार्यवाही पर्याप्त नहीं है.
सजा देने के लिए साबित करना होगा भ्रष्टाचार
जस्टिस आनंद शर्मा की एकलपीठ सुनवाई करते हुए कहा कि सिर्फ धन बरामद होना (ट्रैप) ही इस बात का पर्याप्त प्रमाण नहीं है कि आरोपी भ्रष्टाचार अधिनियम की धारा 20 के तहत दोषी है. साथ ही केवल यह कहना की आरोपी ने अपराधजनक दुराचार किया है, धारा 13(1)(d) के तहत दंडनीय कहने के लिए काफी नहीं है.
दरअसल, आरपीएफ के तीन कर्मचारी कैलाश चंद सैनी, जगवीर सिंह और संवर लाल मीणा को जुलाई 2007 में एसीबी टीम ने सीकर में एक व्यक्ति चिरंजी लाल से 5,000 रुपये की रिश्वत लेते हुए पकड़ने का दावा किया था. आरोप था कि यह धनराशि शिकायतकर्ता के भाई का नाम एक आपराधिक मामले से हटाने के लिए ली जा रही थी.
क्या था पूरा मामला
शिकायत के मुताबिक, 22 जून 2007 को शिकायतकर्ता जयपुर में एलआईसी प्रीमियम जमा कराने गया था. जब उसका भाई रामनिवास टिकट लेकर नगर परिषद के पास बाहर आया, तो रेलवे अधिकारी आरएस कसाना ने उसे रोक लिया और टिकट अवैध रूप से बेचने का आरोप लगाया. थोड़ी बहस के बाद अधिकारी ने उसके टिकट जब्त कर लिए. अगले दिन शिकायतकर्ता को पता चला कि उसके और उसके भाई के खिलाफ आरपीएफ चौकी में मामला दर्ज किया गया है. इसके बाद दोनों को चौकी बुलाया गया.
शिकायतकर्ता जब चौकी में तत्कालीन प्रभारी कैलाश चंद सैनी से मिलने पहुंचा तो उससे रिश्वत मांगी गई. इस पर उसने एसीबी को सूचना दी. इसके बाद एसीबी ने ट्रैप कर आरोपियों को पकड़ा. इस दौरान अन्य आरोपी संवर लाल से धन बरामद भी हुआ.
इसके बाद उनके खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धाराएं 7, 13(1)(d), 13(2) और आईपीसी की धारा 120-बी के तहत एफआईआर दर्ज की गई. 2023 में जयपुर स्थित एसीबी की विशेष अदालत ने तीनों को एक वर्ष के कारावास और 5,000 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई थी. इसके बाद तीनों ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी.
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की ओर से एडवोकेट माधव मित्र ने बताया कि शिकायतकर्ता और उसके भाई के खिलाफ मामला सही पाया गया था. कैलाश चंद सैनी ने 24 जुलाई 2007 को जांच पूरी कर चार्जशीट अनुमोदन हेतु डीएससी (डिविजनल सिक्योरिटी कमिश्नर) के कार्यालय भेज दी थी. इसलिए उस समय शिकायतकर्ता का कोई कार्य उसके पास लंबित नहीं था.
हाई कोर्ट ने क्या कहा
हाई कोर्ट ने एसीबी अदालत के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि अभियुक्तों द्वारा किसी अनुचित लाभ की मांग या प्राप्ति का कोई ठोस कारण या सबूत नहीं पाया गया. अदालत ने यह भी कहा कि ट्रायल कोर्ट सबूतों की सटीक व्याख्या करने में असफल रहा. अभियोजन यह साबित नहीं कर सका कि रिश्वत की मांग की गई थी. उसे स्वीकार किया गया था या तब कोई लंबित कार्य था. इसलिए यह सिद्ध नहीं हो पाया कि अभियुक्तों ने किसी बेईमानी की नीयत से कोई आर्थिक लाभ प्राप्त किया.
निर्णय में यह भी उल्लेख किया गया कि कानून के तहत यह स्थापित सिद्धांत है कि अभियुक्त तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक दोष सिद्ध न हो जाए. इसलिए अभियोजन पर यह दायित्व है कि वह आरोपी का दोष संदेह से परे साबित करें.
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