देशभर में जहां असत्य पर सत्य और पाप पर पुण्य की विजय का पर्व विजयदशमी मनाया जाता है, वही लंकापति रावण के ससुराल कहे जाने वाले जोधपुर में आज भी दशानन रावण के वंशज इस दिन शोक मनाते हैं और रावण का दहन भी नहीं देखते हैं. जोधपुर के श्रीमाली समाज के गोधा गोत्र के लोग स्वयं को रावण का वंशज मानते हैं. इन लोगों का मानना है कि रावण एक महान ज्ञानी और पराक्रमी योद्धा था. उन्होंने भगवान शिव की आराधना की थी और कई दिव्य शक्तियां हासिल की थी.
रावण के वंशज जोधपुर के मेहरानगढ़ किले के पास बने रावण और उनकी कुलदेवी खरानना का मंदिर में नियमित रूप से पूजा अर्चना करते हैं. इस मंदिर में रावण की एक विशाल मूर्ति भी स्थापित है. विजयदशमी के दिन रावण दहन हो जाने के बाद रावण के वंशज अपनी जनेऊ बदल कर स्नान करते हैं. उसके बाद दशानन रावण के मंदिर में आकर पूजा अर्चना करने के बाद ही भोजन ग्रहण करते हैं.
एनडीटीवी से खास बातचीत करते हुए रावण के वंशज और मंदिर के पुजारी कमलेश दवे ने बताया कि, "जोधपुर में इस मंदिर को बने कई वर्ष हो चुके हैं. जहां हम लोग दशानन रावण की पूजा करते हैं. क्योंकि यह हमारे लोक देवता है इसलिए हम इनका पूजन करते हैं. दशहरे के दिन रावण दहन भी हम नहीं देखते और उसे दिन देर शाम रावण दहन के बाद हम लोग स्नान कर मंदिर में दशानन की पूजा अर्चना कर आरती करते हैं. उसके बाद ही भोजन करते हैं और यह परंपरा हमारी सदियों से चली आ रही है."
रावण के वंशज का यह मानना है कि रावण का दहन करना सही नहीं है. वह एक महान योद्धा और ज्ञानी था. उसका दहन करना उसके सम्मान को ठेस पहुंचाने जैसा है. रावण के वंशजों की इस मान्यता और परंपरा का सम्मान करते हुए जोधपुर प्रशासन भी रावण दहन के आसपास के इलाकों में रावण के वंशजों के घरों के बाहर ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए विशेष व्यवस्था करता है.
इस परंपरा के पीछे एक कथा प्रचलित है कि, रावण की पत्नी मंदोदरी जोधपुर के राजा मय की पुत्री थीं. जब राम और रावण के बीच युद्ध हुआ, तो मंदोदरी अपने पिता के घर जोधपुर आ गई. जब राम को पता चला कि मंदोदरी जोधपुर में हैं, तो उन्होंने यह सम्मान देते हुए जोधपुर में रावण का दहन नहीं किया. तब से लेकर आज तक जोधपुर में रावण का दहन नहीं किया जाता है और रावण के वंशज इस दिन शोक मनाते हैं. यह जोधपुर की एक अनूठी परंपरा है, जो सदियों से चली आ रही है.