
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को राजस्थान हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसमें नाबालिग से रेप के दोषी व्यक्ति की सजा निलंबित कर दी गई थी. जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस केवी विश्वनाथ की पीठ ने आदेश दिया. नाबालिग पीड़िता के पिता की अपील पर कोर्ट ने सुनवाई की. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट को सजा निलंबित करने से संबंधित आवेदन पर सुनवाई करते समय दोषसिद्धि को पलटने की उचित संभावना दर्शाने के लिए रिकॉर्ड पर मौजूद प्रथम दृष्टया स्पष्ट साक्ष्यों को परखना चाहिए.
निचली अदालत ने 20 साल की सजा सुनाई
निचली अदालत ने दोषी को 20 साल की सजा और 50 हजार रुपये का जुर्माना लगाया था. सितंबर 2024 में, राजस्थान हाईकोर्ट ने सजा को निलंबित कर दिया था. यह कहते हुए, "डॉक्टरों को यौन उत्पीड़न के कोई संकेत नहीं मिले थे. रिकॉर्ड पर कोई एफएसएल और साथ ही डीएनए रिपोर्ट नहीं है. घर में शौचालय होने के बाद भी पीड़ित शौच के लिए बाहर गई, यह समझना थोड़ा मुश्किल है. और कहा कि दोषी के पास दोष सिद्ध के ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए मजबूत आधार थे.
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले पर नहीं जताई सहमति
सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाई कोर्ट की टिप्पणी और फैसले पर सहमति नहीं जताई. कहा कि मामले के साक्ष्य की समग्र प्रकृति पर विचार किए बिना यह निष्कर्ष निकालना कि कोई यौन उत्पीड़न नहीं पाया गया, पूरी तरह से अस्वीकार्य है.
न्यायमूर्ति नागरत्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि सीआरपीसी की धारा 389 के तहत दोषसिद्धि के बाद जमानत तभी दी जानी चाहिए, जब रिकॉर्ड में कुछ ऐसा हो जो बहुत स्पष्ट या गंभीर हो, जिसके आधार पर अदालत प्रथम दृष्टया इस निष्कर्ष पर पहुंच सके कि दोषसिद्ध टिकाऊ नहीं हो सकती है.
डीएनए रिपोर्ट अपराध की गंभीरता को दर्शाती है
इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने विलंबित डीएनए रिपोर्ट पर भी ध्यान दिया, जिसमें पीड़िता के गुप्तांग और अंडरवियर पर आरोपी के पुरुष डीएनए-वीर्य की उपस्थिति दर्शाई गई थी. हालांकि शीर्ष अदालत ने इसके गुण-दोष पर टिप्पणी करने से परहेज किया, लेकिन कहा कि डीएनए रिपोर्ट अपराध की गंभीरता को रेखांकित करती है और अभियोजन पक्ष को इसे रिकॉर्ड पर लाने का विकल्प खुला छोड़ दिया.
दोषी को आत्मसमर्पण करने का दिया आदेश
यह मानते हुए कि राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा सज़ा निलंबित करना उचित नहीं था. न्यायमूर्ति नागरत्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने पीड़िता के पिता की अपील स्वीकार कर ली और दोषी को आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया. साथ ही, चेतावनी दी कि अगर वह ऐसा नहीं करता है, तो राज्य पुलिस उसे हिरासत में ले ले. सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उसने मामले के गुण-दोषों की जांच नहीं की है और उसकी टिप्पणियां सज़ा निलंबित करने के आदेश को रद्द करने तक ही सीमित थीं.
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