क़स्बों और गाँव में रहने वाली बच्चियों का स्वभाव शहरों की लड़कियों से अलग तो है. अभाव का बोध, छटपटाहट भी देता है और हिम्मत भी. ग्रामीण अंचल में घर से बाहर निकलकर काम करने में अब उतनी हिचकिचाहट नहीं रही. परिवारों की सहमति भी मिलने लगी है. खेत-खलिहानों में तो पहले भी काम करती ही रही हैं, अब भी कर रही हैं. लेकिन ये भी सच है कि, माँ-बेटियाँ कहीं की भी हों, परिवार की सार-संभाल का भार उन्हीं पर रहता है. बात ये भी है कि उसकी श्रम में, कामकाज में भागीदारी से जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) तेज़ी से बढ़ता दिखता है तो दूसरी ओर दुविधा ये है कि उसके घर-परिवार के दायित्व को अर्थतंत्र के मानदंड गिन ही नहीं पाते.
जी-20 के मंच से प्रधानमंत्री मोदी ने ये बात उठाई है कि वैश्विक वृद्धि के मानकों पर फिर से विचार हो. इस बीच एक आकलन और आया जिसे पढ़कर लगा कि सोच तो सही दिशा में है, लेकिन नीति निर्माताओं के पास ऐसे वैकल्पिक मानदंड ही नहीं हैं, जिसे ‘स्वदेशी' कहा जाये और जो हमारे समाज की वास्तविकता को दर्ज कर पाये और उसकी खूबियों को बचाकर रख पायें.

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‘रीइमैजिनिंग इकोनॉमी'
ये बात आज की नहीं, दो साल पहले ऋषिकेश में हुए एक विमर्श के दौरान जब जेंडर के विषय पर बोलने को कहा गया तब भी मैंने ये बात उठाई थी, कि पश्चिमी पैमाने हमारे सामाजिक ढांचे से मेल नहीं खाते. और उन मानदंडों से हमें जबरन वो बदलाव करना पड़ रहे हैं जो हमारी मान्यताओं और भावनाओं से मेल नहीं खाते. महिलाओं के संदर्भ में ये बात करनी और ज़रूरी है कि उनके कामकाज की पूछ तो रहे लेकिन परिवार के लिए दिए उसके अनमोल समय का ऐसा गुणा-भाग ना करना पड़े. श्रम शक्ति का ये गणित उसके ममत्व को, स्त्रीत्व की क़ीमत लगा सकता है कभी?
जब अरुण मायरा जी की किताब ‘रीइमैजिनिंग इकोनॉमी' पढ़ी तो लगा अपने ही मन की बात और बेहतर तरीके से कही जा रही है. खास तौर से महिलाओं के योगदान को नकारने वाले पैमानों पर उन्होंने प्रश्नचिह्न लगाया है और इसके सामाजिक असर की बहुत ही व्यावहारिक व्याख्या की है. उनके लेखन और सोच को आज से नहीं, डेढ़ दशक से देखा है, जाना है. उनसे मिलकर हमेशा ही लगा, कि ऐसे लोग कम हैं जो ऊँचे पदों पर रहते हुए और अनुभवी होते हुए भी, धरातल की पक्की पकड़ रखते हैं. योजना आयोग में रहते हुए, जब उन्होंने मुझे वहाँ आने का न्योता दिया था तो पूरी टीम के साथ बैठकर बात की. बहुत धैर्य से सुना, मान-सम्मान और मंच दिया. कुछ साल पहले, एक प्रशिक्षण देने यहाँ आए थे, तब फिर छोटी सी मुलाक़ात रही. भरी सभा में पुराने कामों को याद किया. ऐसे संजीदा लोग जब कुछ कहते हैं, लिखते हैं तो ध्यान से सुना जाना चाहिए.

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विकसित भारत का भार
भारत ने अगले पाँच सालों में विकसित भारत होने का जो लक्ष्य बनाया है वो सिर्फ़ जीडीपी की दहाई से पूरा नहीं होने वाला. जिस ‘केयर टेकिंग' की हर एक को ज़रूरत है, उसे महत्व देने वाली इकोनॉमी में सबसे बड़ी बात होगी कि हम महिलाओं के काम और योगदान को जानें. उसकी गरिमा को सर्वोपरि रखें. परिवार में उसके स्थान और उसके जुड़ाव को ही बड़ा मानदंड मानें. क्योंकि ये भारत की ही नहीं पूरी मानव सभ्यता की रीढ़ है.
महिलाएं जब काम-काज की औपचारिक व्यवस्था के लिए घरों से बाहर आती हैं, दूरियाँ तय करती हैं, तो अपने परिवार के समय से ही कटौती करती हैं. सेहत से समझौता करती हैं. अपनी सुरक्षा की चिंता में जीती हैं. इस भाग-दौड़ और परिवार और काम के बीच खींचतान से देश की जीडीपी को भले ही उछाल मिलता है लेकिन पीछे से परिवार भी भुगतता है. घर-बार में सामंजस्य की स्वस्थ परंपरा ध्वस्त हो जाती है. घर के बच्चों का लालन पालन, बुजुर्ग माता पिता की सेवा, खान-पान का ध्यान सारी व्यवस्थाएं अस्त-व्यस्त हो जाती हैं. तो ऐसे में परिवार में दायित्वों का बँटवारा भी ठीक से हो. उसे मदद करने वाले हाथ हों, सहारा और संबल देने वाली सोच हो.
लेकिन, जिस परिवार और समाज को बाँधे रखने में वो जी जान से लगी रहती है, वो तो आंकड़ों में, रिपोर्टों में, गणना में उसे कहीं दिखाता ही नहीं. ये बात अब अर्थतंत्र को भारतीय पक्ष से देखने वाले अर्थशास्त्री कहने लगे हैं.
लेकिन साथ ही ये प्रश्न भी बना रहेगा कि क्या फिर महिलाएँ बाहर ही न निकलें? घरों में भी तो घुटन है, उसकी सुनवाई नहीं है. वहाँ वो अपने दम पर कैसे खड़ी रहे? सदियों से उसके साथ हुए भेदभाव और दमन का वो अकेले कैसे सामना करे? उसकी अपनी प्रतिभा, उसकी दुनिया को जानने और अपनी तरह से जीने की ललक का सम्मान कैसे हो? आर्थिक स्वतंत्रता ही वो तरीका है जिससे वो भेदभाव और शोषण से लड़ने लगी है. इन विरोधाभासों से जूझते जूझते ही हम यहाँ तक पहुँचे हैं, जहाँ वो रोज़गार पाने के लिए खूब तैयारी कर रही है, सेना, पुलिस, खेलकूद, मीडिया हर जगह प्रवेश पा रही है. नए मानक गढ़ रही है. और उधर, ये भी सच है कि इससे घर के समीकरण बदल रहे हैं. महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों में बेतहाशा बढ़ोतरी है, और अदालतों में पारिवारिक मुकदमों की भरमार है. जिसके लिए वो अकेली ज़िम्मेदार नहीं है.

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विषमता भी, विरोधाभास भी
महिलाओं के घरेलू और पारिवारिक श्रम को जानबूझकर या अनजाने में जिस तरह ओझल किया गया है, समाज उससे बेख़बर रहा तभी ये अंतर्विरोध उपजे.जो समाज, विशेष तौर से कस्बाई-ग्रामीण अंचलों में, अभी जितना भी खनखनाता, सक्रिय और सजग दिख रहा है तो उसके पीछे उन महिलाओं का भरपूर योगदान है जो घर-परिवार को ठीक से संभाले हुए हैं. रीति-रिवाज़, और संस्कृति को सहेजे हुए हैं. लेकिन देश की वृद्धि और समृद्धि को मापने की बारी आती है तो इस योगदान, इस सफलता, इस निस्वार्थता को कोई स्थान नहीं मिलता. नारी को आगे की पंक्ति में लाने के हिसाब से नीतियाँ भी बन रही हैं. लेकिन जब तक किसी काम की ‘रकम' तय नहीं होती, उसे काम ही ना माना जाए, ये विरोधाभास तो अखरने ही चाहिए.
भारत में महिलाओं की मेहनत कुल जीडीपी की 15-17% के बराबर आँकी गई है. ये तब है, जब घर-परिवार में उसके योगदान नहीं गिने जा रहे और दूसरी ओर बात ये कि गिने भी कैसे जाएं? क्या माँ-मासी, बेटी-बहन, बुआ-भाभी, दादी-नानी, काकी-ताई के काम को पैसे से तोला जा सकता है? उनके लिए ये सम्मान की बात होगी या अपमान की? रसोई और लालन-पालन से लेकर का घर की ‘अर्थव्यवस्था' काफ़ी कुछ उसकी पकड़ में रही है तो संवरी भी रही है. बात सिर्फ़ जीडीपी की नहीं, चिंता उस बाज़ार और उस व्यवहार की है, जिसमें उसे उपभोक्ता और अर्थव्यवस्था के एक ‘सेक्टर' के तौर पर देखा जा रहा है.

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भारतीय मानदंड से हो परख
जीडीपी का पैमाना अमेरिका के आर्थिक संकट का आकलन करने के लिए बना था. जीडीपी के जन्मदाता ने तभी चेताया था कि इसे नीतियाँ बनाने में काम में न लिया जाये. अपने देश में इसकी चर्चा तो हुई पर विकल्प तैयार नहीं हुआ. नीतियाँ भी महिलाओं की श्रम में भागीदारी का खाका तैयार कर रही हैं ताकि महिलायें काम काज की औपचारिक व्यवस्था में शामिल हों.जीडीपी इसी से और वज़नदार नज़र आएगी. अभी श्रम में महिलाओं की भागीदारी 24% है जो वैश्विक पैमानों से काफ़ी कम है.सोच वही है, महिलाओं को उनके काम की क़ीमत चुकाई जाये, क़ीमत तय की जाये और अर्थतंत्र को मज़बूत बनाया जाये.
सभ्यता के हर दौर में प्रेम, करुणा और वात्सल्य भाव और न्याय से ही विकास की परख होगी. अरुण मायरा जैसे जानकारों का आकलन भी यही है कि आने वाले समय में उन देशों की पूछ रहेगी जहाँ पारिवारिक संस्थाएं जीवित बचेंगी. ये संभावना भारत में बाक़ी है. दुख दर्द में सम्भालने वाली व्यवस्था अभी क़ायम हैं. अब भी, परिवार और मित्रजनों की पूछ और उनकी देखभाल को सिर्फ़ पूँजी और धन से नहीं तोला जाता. मानवता का दायित्व जहाँ प्राथमिकता में रहेगा, वही देश, दुनिया में अपनी धाक जमा पाएंगे. काम का मोल समझें या उसे सिर्फ़ पैसों से तोलें, ये हमें तय करना है. जीडीपी के साथ ही और मानदंड भी चाहिए अब. वृद्धि-दर में महिलाओं के गरिमामय जीवन, हमारे चेतन स्वभाव, आपसी लगाव ही विकसित भारत की असल पहचान बने, इसके लिए अभी से मंथन करना होगा.
परिचयः डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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