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सिर पर पल्लू वाली नई ‘अधिकारी’ और नई सीख

डॉ. क्षिप्रा माथुर
  • विचार,
  • Updated:
    दिसंबर 01, 2025 17:39 pm IST
    • Published On दिसंबर 01, 2025 17:38 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 01, 2025 17:39 pm IST
सिर पर पल्लू वाली नई ‘अधिकारी’ और नई सीख

गाँव और कस्बों में रहने वाले युवाओं से फिर से बात करने का मौक़ा लगा. इनके पास जाना हमेशा सुखद होता है. एक वजह तो ये कि ये आपको इतना अपना मानते हैं कि उलाहना दिए बग़ैर नहीं रहते. राधा मोहन, अपने गाँव से जयपुर जाकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगा है. बोला, आप बार-बार आया करो, आप सबसे मिलकर-सुनकर दुनिया भर के बारे में समझ बढ़ती है. और दूसरा ये कि हम करना तो बहुत चाहते हैं, लेकिन पढ़ाई-लिखाई पर खर्चा खूब होने के बाद भी लगता है, नौकरी मिलेगी या नहीं? आजीविका कैसे चलेगी? गाँव में रहना चाहते हैं लेकिन यहाँ अवसर ही नहीं हैं. 

मुझे लगा ये छोटी बात नहीं. नीति बनने वालों को ऐसे संवादों पर खास ध्यान देकर, आगे बढ़कर ठोस काम करना चाहिए. शहरी-कोचिंग ने राधा मोहन जैसे कितने युवाओं की रंगत छीन ली है. शहरों में किराए से रहना और ख़राब खाना, सब चौपट कर देता है. ये सब चार दशक से सक्रिय ‘स्वराज' जैसी सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हैं.

दुनिया भर की बातें जान-समझ रहे हैं, संविधान, सामाजिक बदलाव, ग्राम पंचायतों के अधिकार, जैविक खेती सहित मानसिक स्वास्थ्य जैसे विषयों तक के लिए प्रशिक्षण ले रहे हैं. नशे और शराब जैसे व्यसन से बचे हुए हैं, मगर ‘रील्स' के रोग की पकड़ में आने लगे हैं. उन्हें आगाह करने वाली प्रक्रिया बनी हुई है इसलिए स्मार्ट फ़ोन के सही उपयोग की बात ध्यान से सुनते हैं और प्रश्न भी खूब करते हैं. ये भी छोटी बात नहीं है कि तकनीक इनकी पकड़ में रहे, न कि ये सब तकनीक की जकड़ में. 

शहर की ‘जेन ज़ी'

शहरों के अभिजात्य संस्थानों में पढ़ाते हुए मुझे लगा कि शहरी युवाओं में प्रतिभा, अनुशासन और समझदारी ही कम नहीं, उनका समाज-देश-दुनिया से जुड़ाव भी कम है. इसीलिए ऐसे संस्थान, बड़े परिसरों में फैलकर भी साधारण दर्जे के ही रह गए हैं. जीवन के संघर्ष और समाज के गहरे प्रश्न से जूझे बग़ैर भी इनके पास काम के ढेरों अवसर हैं. ऐसी पीढ़ी भले ही ‘वर्कफोर्स' में आ जाए, लेकिन समाज के लिए उपयोगी नहीं. इनमें भटकाव इसलिए भी है, क्योंकि जिस तड़क-भड़क वाले परिवेश में ये रह रहे हैं, वहाँ का सच भी यही है.

आभासी और सतही जीवन, जिससे सिर्फ़ स्वार्थ जन्म लेता है. वही उन्हें नियंत्रित करता है, और वही, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को गहरा करता है. जो संस्कृति शहरी संस्थानों में पनप रही है, वो है अपनी बातें दबा-छिपाकर रखना, और सिर्फ़ मुनाफ़े को ध्येय मान लेना. ये विद्यार्थी जीवन के आदर्श कैसे बनेंगे? दूसरी ओर महानगरों में वो खेमा पहले से ही पनप रहा है, जहाँ हवा-प्रदूषण के ख़िलाफ़ आंदोलन के बहाने ‘लाल सलाम' के नारे लगाकर उत्पात मचाती ‘जेन ज़ी' अख़बारों में, मीडिया में खूब जगह पा रही है. 

आभासी और सतही जीवन, जिससे सिर्फ़ स्वार्थ जन्म लेता है. वही उन्हें नियंत्रित करता है, और वही, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को गहरा करता है.

सौम्य-सरल संतोष 

दिखावे और उत्पाती दुनिया से बिल्कुल अलग, अनुशासन और लक्ष्य पर केंद्रित रहने वाले जो युवक-युवतियां ग्रामीण अंचल की संस्थाओं की बैठकों में कुछ सालों से लगातार आ रहे थे, अब नहीं आते. संघर्ष के रास्ते चलते-चलते जीवन की दिशा पाने के बाद, अधिकांश, अपनी आजीविका में लग गए हैं. इनमें लड़के और लड़कियां बराबर की भागीदार हैं. पहले कम आती थीं, अब देखा-देखी इतना आने लगीं हैं, इतना खुलने लगी हैं कि इनके सामने लड़के चुपचाप बैठे नज़र आते हैं.

बैठक में चर्चा के बीच ही, जैसे ही मैंने कोई उदाहरण दिया, तो लड़कों ने कटाक्ष किया कि इनके तो मेकअप और फैशन ही ख़त्म नहीं होते. बदले में लड़कियों का तपाक से उत्तर मिला, तुम सब भी कौनसा कम करते हो? शौक तो पूरा करेंगे, क्यों रखें मन में? थोड़ी बहुत बहस, मगर बिना गहमा-गहमी, हँसी मज़ाक़ में बात ख़त्म हो गई. 

इस बीच, इनके आत्मविश्वास को पोषित करने वाला एक और संवाद हुआ. हाल ही में राज्य प्रशासनिक सेवा (RAS) में चुनकर आई संतोष और सीता सहित विष्णु ने भी अपने संघर्ष और सफलता के अनुभव साझा किए. अपने ससुर के बगल में बैठी, ज़रा सा घूँघट, लाल स्वेटर और हल्की सी मुस्कान वाली संतोष प्रजापत ने जब बोलना शुरू किया तो सब मंत्रमुग्ध होकर सुनते रह गए. बहुत सरल सीधी-साधी बात.

ग्यारहवीं कक्षा में विवाह के बाद आगे की पढ़ाई, बच्चे, घर परिवार का ध्यान, लक्ष्य के लिए जी जान से जुटना और और दो बड़ी सीख: एक माता-पिता और किसी का भी, जी नहीं दुखे कभी, और दूसरा, गीता का अध्ययन नियमित करना. ध्येय प्राप्ति के लिए बस इतना ही. उसकी वाणी और स्वभाव में सब झलक रहा था. इसके बाद तो युवाओं ने खूब सेल्फी खिंचवाई, खूब वीडियो बनाये और अच्छी बात सहेज कर रख ली. 

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सब खोने के बाद भी 

फिर लहंगा चुनरी पहनकर, सिर ढके, अपने नवविवाहित भाई-भौजाई के साथ आई सीता मीणा ने मंच संभाला. सबका ध्यान उसकी ओर था, मंच पर बोलते हुए हाथ तो थोड़ा धूज रहे थे. बोली, पहली बार ऐसे सबके सामने बोली हूँ. लेकिन कितना अच्छा बोली, एकदम दिल से जैसा बोलना चाहिए वैसा. विवाह के कुछ समय बाद बिजली विभाग में काम करने वाले पति का देहांत हुआ. गर्भवती सीता की दुनिया बिखर गई, पिता जैसा स्नेह देने वाले ससुर भी चल बसे.

भाई ने हिम्मत बँधाई, बीएड की पढ़ाई करवाई. पढ़ाई, परीक्षा, इंटरव्यू सबके लिए खूब भाग दौड़ की. सीता के दादा का जुड़ाव सामाजिक संस्था से रहा और प्रधान भी रहे, तो उन्होंने भी पूरा साथ दिया. सीता अध्यापक बनी और उसके बाद राज्य प्रशासनिक सेवा में जाने की ठानी. और जो चाहती थी, आज बन गई. कहती है- अनुशासन से, घर परिवार के सहयोग से, भाई की हिम्मत से लक्ष्य मिल गया. बस इधर-उधर की कुछ भी बात मत सुनो, ताना देने वालों से दूर रहो. 

RAS अधिकारी सीता मीणा

RAS अधिकारी सीता मीणा
 Photo Credit: Facebook

संतोष और सीता की तरह ही, राज्य प्रशासनिक सेवा में चुने गए विष्णु ने छह साल की रणनीति बनाई, ऐसे मित्र बनाये जिनके जीवन लक्ष्य उनसे मेल खाते थे. सबने साथ मेहनत की और सफल हुए. ये बात सबकी समझ आनी चाहिए कि सिर पर ओढ़ना, संस्कृति की पहचान है और ये पिछड़ेपन की निशानी नहीं है. जब वो अपनी आजीविका के लिए समाज में उठती बैठती है तो पहनावा उसी तरह का हो जाता है. तब घूँघट हट जाता है. लेकिन घर-परिवार में ये उसकी अपनी चेतना से होगा, किसी आदेश-निर्देश से नहीं. उसकी इच्छाशक्ति इतनी है कि वो अपना भला सोच रही है. सीता कहती है, मैं अपने इलाके की बेटियों को भी सिखाऊँगी कि कैसे अपने को संभालना है, लक्ष्य पाना है. मैं कर सकती हूँ तो कोई भी कर सकता है. 

जो गणित देश की 70 फ़ीसदी आबादी, महिलाओं के काम-काज, संघर्ष और घर परिवार को जोड़े रखने में उनके योगदान को ओझल करता है, अब उसका तोड़ निकल जाना चाहिए. देश के प्रधानमंत्री भी जी-20 के मंच पर ये बात छेड़कर आए हैं.

स्वदेशी और अर्थतंत्र का मूलमंत्र

ये सिर्फ़ कहानियाँ नहीं, ग्रामीण अंचल में पनप रहा साहस है, धरातल की वास्तविकता है और लगातार सुधार की ओर बढ़ रही कर्मशील-चिंतनशील पीढ़ी है. जिसमें युवतियां-महिलाएं आगे की पंक्ति में हैं. जिनकी सुरक्षा और सहयोग के लिए व्यवस्था, समाज और संस्थाओं को अभी बहुत लगकर काम करना है. इनका सच सकल घरेलू उत्पाद जैसे पैमानों से कतई पकड़ में नहीं आता.

जो गणित देश की 70 फ़ीसदी आबादी, महिलाओं के काम-काज, संघर्ष और घर परिवार को जोड़े रखने में उनके योगदान को ओझल करता है, अब उसका तोड़ निकल जाना चाहिए. देश के प्रधानमंत्री भी जी-20 के मंच पर ये बात छेड़कर आए हैं. इसकी विस्तार से बात करेंगे, पैमाने भी नए चाहिए और सोच और प्रक्रियाएं भी. 

अभी तो बात ये कि ऊँचे पदों पर बैठे अधिकारी और प्रदेश की सत्ता संभालने आए नए मुख्य सचिव, ‘स्टार्ट अप' और ‘उद्यमिता' से ग्रामीण युवाओं को जोड़ने और उनकी आजीविका के लिए पूरे ज़ोर-शोर से लगें. दुनिया भर में और भारत के कुछ हिस्सों में पनप रही विभाजनकारी सोच का विस्फोट हमें नहीं चाहिए.

परिवार और समाज में लिंग, जाति और सोच के संघर्ष से बिना तख्ती-प्रदर्शन-और तोड़फोड़ किए निकले ये युवा, देश की मिट्टी और खाद हैं. यही शहर की चालाकियों के बीच हमारी ढाल बनेंगे और स्वदेशी के बीज बोकर अर्थतंत्र को भीतरी ताक़त भी यही देंगे.

परिचयः डॉ. क्षिप्रा माथुर जयपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मीडिया और अध्यापन में तीन दशकों से सक्रिय हैं. अपने लेखन और वक्तव्यों में उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाया है, जिनमें समाज के उपेक्षित तबकों और उनके मुद्दों की विशेष रूप से चर्चा की गई है. भारत के चुनाव आयोग ने उन्हें नेशनल मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया है. 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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